अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रामदीन का सिरदर्द

 

“हाँ बताइए, क्या परेशानी है?” 

सामने बैठे डॉक्टर साहब चश्मे के फ़्रेम को नाक पर फ़िट करते हुए पूछते हैं। उनके चेहरे पर वह अनुभवी शान्ति है, जो वर्षों तक बुखार-सर्दी-खाँसी के रोगियों को देखकर विकसित होती है। 

कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपनी कनपटी सहलाते हुए धीरे से कहता है, “सर . . . दर्द है डॉक्टर साहब। बहुत तेज़।”

डॉक्टर क़लम उठाते हुए, बिना ऊपर देखे पूछते हैं, “कब से?” 

“तारीख़ तो ठीक याद नहीं . . .” वह थोड़ा रुका, फिर बोला, “. . . लेकिन जिस दिन मुझे BLO बनाया गया था, उसी दिन से।”

अब डॉक्टर ने पहली बार सिर उठाया। 

“BLO? मतलब . . . बूथ लेवल ऑफ़िसर?” 

“जी,” उस व्यक्ति ने मानो अपराध स्वीकार करने वाले हावभाव में गर्दन झुका दी, “नाम है रामदीन। लोग अब नाम कम और ‘वोट वाला आदमी’ ज़्यादा पुकारते हैं।”

डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप की जगह सहानुभूति निकाल  लिया, “तो समस्या क्या है? सिरदर्द कैसे बढ़ता है?” 

रामदीन की आँखें चमकीं, जैसे किसी ने युगों से दबा सत्य पूछ लिया हो। 

“समस्या डॉक्टर साहब ये है कि मैं हर दिन आम मतदाता और सरकारी नियमावली के बीच फँसा रहता हूँ।”

उन्होंने गहरी साँस भरी और बोलना शुरू किया, “पहले-पहले लगा ये छोटा-सा काम होगा। लेकिन फिर मतदाता सूची मिली . . . जिसकी हालत देखकर समझ आ गया कि यह सूची नहीं, बल्कि भारत की जनसंख्या और क़िस्मत का एक मिश्रित आध्यात्मिक दस्तावेज़ है।”

डॉक्टर हँस पड़े। 

“इतना बुरा क्या है?” 

रामदीन बोले, “कई नाम ऐसे हैं जो धरती से जा चुके हैं, पर रिकॉर्ड में अमर हैं। कुछ ऐसे हैं जो ज़िंदा हैं, पर सूची में ‘लापता आध्यात्मिक अस्तित्व’ की श्रेणी में आते हैं। 

“और जन्मतिथियाँ? 

“ऐसा लगता है जैसे आधा देश 15 अगस्त 1947 को ही पैदा हुआ।”

डॉक्टर अब नोट्स नहीं, आनंद ले रहे थे। 

रामदीन ने आगे कहा, “फिर दस्तावेज़ों की कहानी अलग। कोई कहता है—‘नाम बदल दूँगा, पर दादा की लिखावट नहीं बदलूँगा।’ कोई बिजली बिल पकड़ा देता है और कहता है—‘यही जन्म प्रमाण है, यहीं से रोशनी निकलती है।’”

डॉक्टर अब पेट पकड़कर हँस रहे थे। 

रामदीन गंभीर थे, “और साहब, ऊपर से रोज़ मैसेज—

‘डेडलाइन बढ़ा दी गई है।’
‘डेडलाइन घटा दी गई है।’
‘डेडलाइन तो थी ही नहीं, पर अब है।’
‘जो भेजा है वह ग़लत है, दोबारा भेजिए, और तुरंत भेजिए।’”

डॉक्टर ने पूछा, “तो उपाय क्या चाहते हैं?” 

रामदीन दुख में भी तर्कशील थे, “एक गोली लिख दीजिए . . . पर वो दर्द-निवारक नहीं . . . ऐसी हो जो सिस्टम को समझ ले, मतदाता को समझ ले, और मुझे बीच में कुचले जाने से बचा ले।”

डॉक्टर ने गंभीरता से सिर हिलाया। 

“ऐसी गोली नहीं बन पाई रामदीन . . .”

उन्होंने पर्चा लिखते हुए जोड़ा—
“लेकिन एक दवाई है—
धैर्य। 
दिन में तीन बार—नियमित।”

रामदीन ने पर्चा देखा और धीमे से बोला, “डॉक्टर साहब, धैर्य की गोली मैं पिछले चुनाव से खा रहा हूँ . . . अब तो लोकतंत्र-जनित माइग्रेन हो गया है।”

डॉक्टर मुस्कुरा दिए, “तो फिर, बस एक सलाह है—जब-जब सिर दर्द हो, बस याद करिए—पूरा लोकतंत्र आपकी वजह से चल रहा है।”

रामदीन धीरे से उठे और कहा, “हाँ डॉक्टर साहब . . . यही सोचकर अभी तक चल रहा हूँ, वरना सूची देखकर तो मैं कभी-का निष्क्रिय मतदाता बन गया होता।”

क्लिनिक के बाहर जाते-जाते उन्होंने सिर दबाते हुए एक वाक्य कहा—“लोकतंत्र महान है डॉक्टर साहब . . . बस उसका पूरा भार मेरे सिर पर नहीं होना चाहिए।”

और डॉक्टर के कमरे में वही शब्द गूँजते रह गए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

लघुकथा

किशोर साहित्य कविता

साहित्यिक आलेख

कहानी

चिन्तन

सांस्कृतिक कथा

ललित निबन्ध

शोध निबन्ध

ललित कला

पुस्तक समीक्षा

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं