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मुक्तिपथ

 

चल पड़ा हूँ मैं, 
बंधनों की राख से उठकर, 
स्वप्नों के नभ को छूने—
जहाँ विचार, वाणी और विवेक
स्वाधीन साँसें लेते हैं। 
 
नहीं चाहिए अब
वह शान्ति, 
जो चुप्पियों की बेड़ियों में बँधी हो, 
न वह प्रेम, 
जो स्वार्थ के कटघरों में सज़ा काटे। 
 
मैं चाहता हूँ—
एक उजास
जो भीतर से फूटे, 
एक सत्य
जो भय से नहीं, आत्मा से उपजे। 
 
संस्कारों की लीक पर चला
पर हर मोड़ पर टकराया
अपने ही अंतर के प्रश्नों से—
क्या यही धर्म है? 
क्या यही न्याय? 
 
अब जो चल रहा हूँ
तो लौटना नहीं है—
यह पथ मेरा नहीं, 
यह पथ मैं स्वयं हूँ। 
 
मुक्तिपथ . . . 
जहाँ मैं, 
मेरा मौन, 
और मेरी आत्मा
एक संग गाते हैं
प्रेम, विद्रोह और जागरण का गीत। 

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