चैत्र नवरात्रि: आत्मशक्ति की साधना और अस्तित्व का नवजागरण
आलेख | सांस्कृतिक आलेख अमरेश सिंह भदौरिया1 Apr 2025 (अंक: 274, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
सृष्टि के चक्र में समय कभी ठहरता नहीं, वह सतत प्रवाहमान है। यह प्रवाह बाह्य जगत में जितना स्पंदित होता है, उतना ही हमारे आंतरिक संसार में भी। चैत्र नवरात्रि केवल एक पर्व नहीं, बल्कि आत्मा की गति और चेतना की पुनर्प्राप्ति का अवसर है। यह वह क्षण है जब मानव अपने अहंकार, वासनाओं और चित्त की अस्थिरताओं से ऊपर उठकर अपनी मूल शक्ति का साक्षात्कार करता है। यह शक्ति केवल शारीरिक या मानसिक नहीं, बल्कि आत्मिक है—वह चेतना, जो अनादि काल से हमारे भीतर सुप्त पड़ी है।
नवरात्रि का उत्सव केवल धार्मिक आडंबर नहीं, यह उस सनातन यात्रा का प्रतीक है, जिसमें आत्मा अपने अनंत स्वरूप को पहचानने का प्रयास करती है। यह आत्मसंयम, साधना और तपस्या का महाकालिक अवसर है, जिसमें हम अपने भीतर की ऊर्जा को पुनः जाग्रत करते हैं और आत्मबोध के मार्ग पर अग्रसर होते हैं।
भारतीय दर्शन में ‘शक्ति’ को केवल एक देवी के रूप में नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि की आधारभूत ऊर्जा के रूप में देखा गया है। यह ऊर्जा प्रकृति में व्याप्त है, यह जीवात्मा की गति है, यह मनुष्य के विचारों, कर्मों और चेतना में प्रवाहित होती है। शक्ति ही ब्रह्म है, शक्ति ही आत्मा की गति है, और शक्ति ही मुक्तिद्वार का प्रवेशद्वार है।
यदि हम नवरात्रि के नौ स्वरूपों को देखें, तो वे केवल देवी की आराधना के चरण नहीं, बल्कि आत्मविकास के नौ सोपान हैं।
शैलपुत्री—चेतना का जड़ता से मुक्ति की ओर प्रथम प्रयास।
ब्रह्मचारिणी—साधना की आवश्यकता और आत्मसंयम का प्रथम बोध।
चंद्रघंटा—मानसिक विकारों और अंतर्द्वंद्वों से संघर्ष की अवस्था।
कूष्मांडा—आत्मप्रकाश, आंतरिक ज्योति का उदय।
स्कंदमाता—दिव्यता और करुणा का उद्भव।
कात्यायनी—अज्ञान और अहंकार का विसर्जन।
कालरात्रि—तमस और अविद्या का संहार।
महागौरी—शुद्धता, निर्मलता और आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति।
सिद्धिदात्री—मोक्ष, पूर्णता और आत्मतत्त्व की सिद्धि।
इस यात्रा में प्रत्येक स्वरूप मनुष्य की आत्मिक प्रगति का प्रतीक है। शक्ति कोई बाहरी तत्त्व नहीं, यह हमारे भीतर सुप्त पड़ा दिव्य बीज है, जिसे नवरात्रि में साधना और उपासना के माध्यम से सिंचित किया जाता है।
नवरात्रि का मूल उद्देश्य आत्मसंयम और मानसिक शुद्धि है। यह केवल बाह्य क्रियाकलापों की शृंखला नहीं, बल्कि भीतरी उथल-पुथल को साधने का अवसर है। इस पर्व में उपवास केवल शरीर को शुद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि मन को एकाग्र करने का एक उपकरण है। जब हम बाहरी तृष्णाओं से मुक्त होते हैं, तब ही आत्मा की पुकार सुनाई देती है।
‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’—योगसूत्र का यह कथन नवरात्रि की साधना के सार को स्पष्ट करता है। जब हम अपने चित्त की वृत्तियों को नियंत्रित कर लेते हैं, तब हम अपने भीतर की शक्ति से परिचित हो सकते हैं।
नवरात्रि का उपवास केवल भोजन का त्याग नहीं, यह हमारे भीतर की नकारात्मकता, क्रोध, अहंकार, लोभ और मोह का त्याग है। यह आत्मसंयम का उत्सव है, जिसमें हम स्वयं को प्रकृति की लय में प्रवाहित होने देते हैं और अपने अहंकार की सीमाओं से बाहर निकलते हैं।
भारतीय दर्शन में नारी को ‘शक्ति’ का स्वरूप माना गया है, लेकिन यह केवल उपमा नहीं, बल्कि सत्य है। नारी केवल शरीर नहीं, वह चेतना का केंद्र है। वह केवल धारण करने वाली नहीं, बल्कि सृजन की मूलभूत शक्ति भी है।
नवरात्रि का पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि जब तक समाज नारी के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझेगा, तब तक वह अधूरा रहेगा। शक्ति की आराधना केवल मूर्तियों तक सीमित न रहकर जीवन के हर क्षेत्र में प्रस्फुटित होनी चाहिए। यदि समाज नारी को देवी कहकर पूजता है, लेकिन उसके अधिकारों, स्वतंत्रता और सम्मान को नकारता है, तो वह शक्ति-साधना अधूरी ही रहेगी।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।”
अर्थात् जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहीं देवत्व का वास होता है।
इसलिए नवरात्रि केवल देवी की पूजा नहीं, बल्कि स्त्री-स्वरूप में शक्ति की अनुभूति और उसके सम्मान की पुनर्स्थापना का अवसर है।
जब वसंत आता है, तब प्रकृति में नवीन स्फूर्ति का संचार होता है। वृक्षों पर नए पत्ते आते हैं, पुष्प खिलते हैं, और पूरी धरती एक नवीन ऊर्जा से अभिभूत हो उठती है। ठीक इसी प्रकार, नवरात्रि का यह पर्व हमारे भीतर की सुप्त चेतना को जाग्रत करने का अवसर देता है।
सवाल यह नहीं कि हम देवी की आराधना कितने विधिपूर्वक कर रहे हैं, असली प्रश्न यह है कि क्या हमने अपनी आंतरिक शक्ति को पहचाना? क्या हम अपने भीतर की नकारात्मकता को छोड़ने को तत्पर हैं? क्या हम भक्ति को केवल बाहरी आडंबर मानते हैं, या इसे आत्मा की गहराइयों तक पहुँचने का मार्ग समझते हैं?
नवरात्रि हमें यह सिखाती है कि शक्ति कोई बाहरी तत्त्व नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही स्थित है। हमें केवल इसे पहचानने और सही दिशा में प्रवाहित करने की आवश्यकता है। जब यह शक्ति जाग्रत हो जाती है, तो मनुष्य केवल जीवन नहीं जीता, वह जीवन को पूर्णता की ओर ले जाता है।
शक्ति केवल बाहरी विजय का माध्यम नहीं, यह आत्मविजय का भी प्रतीक है। जब मनुष्य अपने भीतर की शक्ति को पहचान लेता है, तब वह समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही आत्मबोध है, यही नवरात्रि का वास्तविक संदेश है।
इसलिए, इस नवरात्रि हम केवल देवी की पूजा न करें, बल्कि उनके गुणों को अपने भीतर स्थापित करने का प्रयास करें। शक्ति का सम्मान करें, अपनी आत्मशक्ति को पहचानें, और अपने भीतर वह दिव्यता प्रकट करें, जो अनादिकाल से हमारे भीतर विद्यमान है।
“या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥”
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