चकाचौंध के पीछे
कथा साहित्य | कहानी अमरेश सिंह भदौरिया15 Apr 2025 (अंक: 275, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
गोल्डन ब्लिस क्लब का हॉल रोशनी से नहा रहा था। झूमर की चमक, सिल्क की साड़ियाँ, इत्र की महक, और चाय-कॉफी के साथ फैली हँसी—यह किसी हाई-फ़ाई किट्टी पार्टी का परफ़ेक्ट सेटअप था।
मिसेज़ रागिनी वर्मा ने अपनी आदतन मुस्कान के साथ एंट्री ली। महँगा डिज़ाइनर सूट, हीरे की बालियाँ, और हाथ में इटालियन क्लच—हर चीज़ में उनकी शानो-शौकत झलक रही थी।
“हाय, डार्लिंग्स! कैसी हो सब?”
टेबल पर बैठे चेहरे खिल उठे। बातें शुरू हुईं, पहले हल्की-फुल्की, फिर गॉसिप की गहराइयों में डूबती चली गईं।
“अरे, मिसेज़ कपूर आज नहीं आईं?” मिसेज़ चौधरी ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।
“आएँगी कैसे? उनके पति का अफ़ेयर पकड़ा गया है!” मिसेज़ शर्मा ने आँखें घुमाते हुए कहा।
“हाय राम! बेचारे मिस्टर कपूर की तो इज़्ज़त ही मिट्टी में मिल गई!”
“और मिसेज़ कपूर? सुना है, वो भी अपने जिम ट्रेनर के साथ . . . “
कमरे में ठहाके गूँज उठे। किसी ने यह नहीं सोचा कि यह सिर्फ़ अफ़वाह भी हो सकती है, या फिर टूटते रिश्तों के पीछे कोई गहरी वजह हो सकती है।
मिसेज़ गुप्ता ने चाय का कप रखते हुए कहा, “मेरी बहू दिनभर ‘मम्मी जी-मम्मी जी’ करती है, लेकिन जैसे ही बेटा ऑफ़िस चला जाता है, पूरे घर का रंग-रूप बदल जाता है!”
टेबल पर बैठे महिलाओं के कान खड़े हो गए।
“अरे, क्या करती है तुम्हारी बहू?” मिसेज़ मेहता ने उत्सुकता से पूछा।
“करती क्या है! सुबह-सुबह मुझे ‘मम्मी जी, ये लीजिए गरम पानी’, ‘मम्मी जी, आपकी चाय कैसी बनाऊँ?’ जैसी बातें करके हद से ज़्यादा संस्कारी बनने का दिखावा करती है, और जैसे ही मेरा बेटा ऑफ़िस निकलता है, फोन लेकर कमरे में घुस जाती है। न किचन की चिंता, न घर के बाक़ी कामों की!”
मिसेज़ शर्मा ने ठहाका लगाया, “हाय-हाय! मेरी तो और भी गज़ब निकली! ज़रा भी काम बोलो तो कहती है, ‘मम्मी जी, ज़माना बदल गया है, अब बहुएँ सिर्फ़ रसोई और झाड़ू-पोंछे के लिए नहीं बनीं!’”
“हम्म . . . ” मिसेज़ वर्मा ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा, “अब हमारी नई बहुएँ खुले विचारों वाली हैं, लेकिन जब उन्हें घर के संस्कार अपनाने की बात आती है, तब उन्हें मॉडर्न बनना याद आ जाता है!”
मिसेज़ मेहता ने धीरे से जोड़ा, “लेकिन हम भी तो कभी बहू थीं, हमने भी तो बहुत कुछ सहा। शायद इसलिए आज की बहुओं की सोच अलग है।”
“अरे रहने दो!” मिसेज़ चौधरी ने हाथ हिलाया, “हमारे समय में माँ-बाप जो भी कहते थे, उसे पत्थर की लकीर मानकर स्वीकार कर लेते थे। अब की लड़कियों को देखो, हर बात में तर्क चाहिए, हर चीज़ में बराबरी चाहिए!”
मिसेज़ वर्मा ने सिर हिलाया, “और सबसे बड़ी बात, इन्हें अपनी आज़ादी चाहिए, लेकिन हमारी परंपराओं का सम्मान करने की ज़रा भी इच्छा नहीं।”
बातचीत अब गरमा चुकी थी। साँसों के समूह में बहुओं को लेकर शिकायतों की झड़ी लग चुकी थी।
“बात मानें तो समस्या, ना मानें तो समस्या!” मिसेज़ शर्मा ने गहरी साँस लेते हुए कहा, “अब बताओ, मेरी बहू को मैं सुबह पूजा करने को कहूँ, तो कहती है, ‘मम्मी जी, भगवान मन में होते हैं, हर दिन घंटों पूजा करने की क्या ज़रूरत?’ अब भला इसे क्या जवाब दूँ?”
मिसेज़ गुप्ता ने चुटकी ली, “अच्छा, जब मायके जाती होगी तब क्या मंदिर नहीं जाती?”
सभी हँस पड़ीं।
“अब देखो, हमें तो आदर्श बहू बनने की सीख दी गई थी, लेकिन आज की बहुएँ बहू बनने के बजाय सिर्फ़ ‘पत्नी’ बनकर रहना चाहती हैं!” मिसेज़ वर्मा ने कहा।
मिसेज़ मेहता, जो अब तक चुप थीं, धीरे से बोलीं, “शायद इसलिए क्योंकि अब उनकी पहचान सिर्फ़ ‘किसी की बहू’ होने तक सीमित नहीं रह गई। वो भी अपनी ज़िंदगी जीना चाहती हैं।”
कुछ पलों के लिए टेबल पर एक अजीब-सी चुप्पी छा गई।
बात शायद सही थी, लेकिन उसे मानने का साहस किसी में नहीं था।
हँसी-ठिठोली के बीच यह सवाल कहीं हवा में ही लटक गया—“क्या सच में बहुएँ बदल रही हैं, या फिर सासों की सोच अब तक पुरानी ही बनी हुई है?”
गोल्डन ब्लिस क्लब के आलीशान हॉल में ठहाके गूँज रहे थे। चाय की चुस्कियों और महँगे स्नैक्स के बीच मिसेज़ चौधरी ने गर्व से घोषणा की, “मेरा बेटा अब पूरी तरह से मॉडर्न हो गया है!”
मिसेज़ वर्मा ने मुस्कुराकर पूछा, “अरे वाह! अब तो बड़ी कंपनी में जॉब कर रहा होगा?”
“हाँ, मल्टीनेशनल कंपनी में है। महीने में लाखों कमाता है, गाड़ी अलग, फ़्लैट अलग! अब उसे किसी चीज़ की कमी नहीं।”
“गाँव से कोई नाता?” मिसेज़ मेहता ने चाय का कप रखते हुए पूछा।
“गाँव?” मिसेज़ चौधरी हँस पड़ीं। “अरे अब उसे गाँव का नाम लेने में भी शर्म आती है! कहता है, ‘माँ, तुम भी अब गाँव को भूल जाओ, वहाँ अब कुछ रखा नहीं!’”
टेबल पर बैठी औरतें हँस पड़ीं, लेकिन मिसेज़ मेहता के चेहरे पर हल्की उदासी झलक आई। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “पर अपनी जड़ों को भूल जाना क्या सही है?”
कमरे में कुछ पलों के लिए ख़ामोशी छा गई। फिर मिसेज़ शर्मा ने बात को हल्का करने के लिए कहा, “अरे मेहता जी, अब ज़माना बदल गया है! हम भी तो चाहते हैं कि हमारे बच्चे आगे बढ़ें, बड़े शहरों में नाम कमाएँ!”
“नाम कमाना बुरी बात नहीं है,” मिसेज़ मेहता ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “लेकिन जो मिट्टी हमें पहचान देती है, अगर वही छूट जाए, तो फिर यह तरक़्क़ी किस काम की?”
“गाँव की बूढ़ी आँखें और सूनी चौपाल”
मिसेज़ चौधरी थोड़ी असहज हो गईं। उन्होंने सफ़ाई दी, “देखिए, हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे गाँव को याद रखें, लेकिन शहर की चमक-दमक में ऐसा नहीं हो पाता। अब मेरा बेटा कहता है, ‘माँ, गाँव में वाई-फ़ाई नहीं, सड़कें ठीक नहीं, लोग अब भी पुराने ख़्यालों में जी रहे हैं। वहाँ जाऊँ भी तो क्या करने?’”
मिसेज़ मेहता ने गहरी साँस ली। उनकी आवाज़ में एक गहरी संवेदना थी, “गाँव सिर्फ़ सड़कें या वाई-फ़ाई नहीं होते, गाँव वो आँगन होता है जहाँ हमारी माँओं ने कहानियाँ सुनाईं, वो चौपाल होती है जहाँ पिता ने हमें सिखाया कि सच्चाई और ईमानदारी क्या होती है।”
मिसेज़ गुप्ता, जो अब तक चुप थीं, अचानक बोल पड़ीं, “सच कह रही हैं आप। मेरी सास हर साल कहती हैं, ‘बेटा, गाँव आ जाओ, घर का आँगन तुम्हारी राह देख रहा है।’ लेकिन मेरे पति और बच्चे बस किसी न किसी बहाने टाल देते हैं।”
मिसेज़ वर्मा ने सहमति में सिर हिलाया, “हमारी पीढ़ी गाँव से आई थी, लेकिन हमने अपने बच्चों को गाँव से जोड़कर नहीं रखा। अब जब वे गाँव नहीं जाते, तो क़सूरवार कौन है?”
मिसेज़ चौधरी कुछ सोच में पड़ गईं। उन्होंने याद किया कि जब पिछली बार उनके बेटे को गाँव चलने के लिए कहा था, तो उसने कितनी लापरवाही से जवाब दिया था—
“माँ, वहाँ कोई मेरी लाइफ़स्टाइल को समझेगा भी नहीं। मुझसे गाँव का खाना भी नहीं खाया जाता, और वहाँ के लोग भी तो सिर्फ़ जमीन-जायदाद की बातें करते हैं।”
उसका यह जवाब सुनकर उनकी बूढ़ी सास की आँखें भर आई थीं। वह धीमी आवाज़ में बोली थीं—
“बेटा, हमने तो सोचा था कि तू साल में दो-चार दिन आएगा, गाँव के मंदिर में माथा टेकेगा, पुराने दोस्तों से मिलेगा, लेकिन लगता है अब हमारा गाँव सिर्फ़ हमारी यादों में ही रहेगा।”
मिसेज़ चौधरी ने यह बात अपने बेटे से नहीं कही थी, लेकिन आज मिसेज़ मेहता की बातें सुनकर उनका दिल भर आया।
चाय ठंडी हो चुकी थी। मिसेज़ मेहता की आँखों में गहरी उदासी थी। उन्होंने धीमे से कहा, “शायद हमें सोचना चाहिए कि हम अपने बच्चों को क्या सिखा रहे हैं—जड़ें छोड़ना, या जड़ों से जुड़े रहना?”
इस बार कोई हँसी नहीं आई। कोई ठहाका नहीं गूँजा।
सभी औरतें ख़ामोश थीं—शायद पहली बार उन्होंने इस सवाल को गंभीरता से सुना था।
पार्टी अपने आख़िरी पड़ाव पर थी। महिलाएँ एक-दूसरे से विदा ले रही थीं, लेकिन असली गपशप का दौर अब शुरू हुआ था।
मिसेज़ शर्मा ने मिसेज़ गुप्ता से फुसफुसाकर कहा, “वैसे, मिसेज़ वर्मा बड़ी शान से पार्टी कर रही थीं, लेकिन सुना है मिस्टर वर्मा का बिज़नेस डूब रहा है!”
मिसेज़ गुप्ता की भौंहें उछल गईं। “हाय! फिर इतनी शॉपिंग और इतनी महँगी पार्टी कैसे?”
मिसेज़ शर्मा ने होंठों पर नक़ली हँसी चिपकाई और धीरे से कहा, “दिखावे के लिए, डार्लिंग! और क्या! इन लोगों का लाइफ़स्टाइल सिर्फ़ सोशल मीडिया पर चमकता है, असल में अंदर से खोखला होता जा रहा है!”
“सही कह रही हो! बस ब्रांडेड कपड़े, महँगे परफ़्यूम और इंस्टाग्राम पर परफ़ेक्ट लाइफ़ दिखाने का जुनून। अंदर से सब कर्ज़ में डूबे हैं!”
दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
तभी किचन से तेज़ आवाज़ आई—“कमला! ये ट्रे ठीक से पकड़ नहीं सकती क्या? कितनी बार कहा है, हाथ सँभालकर चला कर!”
महिलाएँ चौंकीं। किचन के दरवाज़े से झाँका तो देखा कि फ़र्श पर टूटी हुई प्लेटें बिखरी पड़ी थीं और मिसेज़ वर्मा की नौकरानी कमला काँपते हुए झुकी हुई उन्हें समेट रही थी।
“सॉरी, मेमसाब! हाथ फिसल गया . . .”
मिसेज़ वर्मा ने आँखें तरेरते हुए कहा, “तुझे कितनी बार कहा है, अगर ऐसे ही गड़बड़ करेगी तो तेरा हिसाब कर दूँगी! दो दिन की रोटी देकर किसी पर एहसान नहीं किया जाता, समझी!”
कमला की आँखों में आँसू थे, लेकिन वह कुछ नहीं बोली। शायद उसकी ग़रीबी को आवाज़ उठाने का हक़ नहीं था।
मिसेज़ चौधरी ने मुँह बनाते हुए कहा, “तुम्हारी यह नौकरानी बड़ी लापरवाह है! ऐसी लड़कियों को ज़रा भी तमीज़ नहीं होती।”
मिसेज़ वर्मा ने घृणा से कहा, “अरे, ये लोग जितना भी कर लो, फिर भी सुधरते नहीं! न काम ढंग से करेंगे, न एहसान मानेंगे!”
कमला चुपचाप झुकी रही। उसकी उँगलियों में काँच के टुकड़े चुभ गए थे, लेकिन दर्द से कराहने की भी इजाज़त नहीं थी।
उसकी आँखों में सवाल थे—“जो ख़ुद दूसरों की बुराई करने में माहिर हैं, वे हमें तमीज़ सिखाएँगे?”
महिलाएँ आपस में खोखली सच्चाइयों पर चर्चा कर रही थीं, और वहीं कमला अपने हालातों की गूँगी गवाह बनी खड़ी थी—एक अमीरी जो सिर्फ़ दिखावे की थी, और एक ग़रीबी जो बेआवाज़ चीख रही थी।
महिलाएँ जा चुकी थीं। पार्टी की चकाचौंध अब बुझ चुकी थी। झूमर की रोशनी अब फीकी और खोखली लग रही थी। सोफ़े पर बिखरे नैपकिन, आधे भरे कप, प्लेटों में बचा हुआ खाना—सब कुछ बेजान-सा लग रहा था।
मिसेज़ वर्मा ने अपनी ऊँची हील्स उतारीं और गहरी साँस ली। उनका सिर भारी हो रहा था—शायद दिखावे की इस पूरी शाम के बाद का एक अनकहा बोझ।
रात का तीसरा पहर। मिसेज़ वर्मा खिड़की के पास बैठी थीं। घड़ी की सूइयाँ धीमे-धीमे आगे बढ़ रही थीं, लेकिन उनका मन अतीत की गलियों में ठहरा हुआ था।
कमला की बातें अब भी कानों में गूँज रही थीं—
“माँ जी, जब घर की दीवारें ऊँची हो जाती हैं, तो दिलों की खिड़कियाँ अपने आप बंद हो जाती हैं।”
क्या सच में उन्होंने अपने आसपास ऐसी ऊँची दीवारें खड़ी कर ली थीं कि अब बेटे की दुनिया उनसे अलग हो गई थी?
उन्होंने अपने हाथों को देखा—उम्र की लकीरों से भरे हुए, जैसे हर झुर्री में एक कहानी छिपी हो। क्या उन्होंने भी अपनी माँ की दुनिया को कभी इसी तरह अनदेखा किया था?
एक हल्की सी सिहरन हुई। उन्होंने अलमारी से अपनी पुरानी डायरी निकाली। धूल झाड़ते हुए पन्ने पलटे तो बीते दिनों की स्मृतियाँ उभर आईं—
वो दिन जब बेटे ने पहली बार ‘माँ’ कहकर पुकारा था, वो दिन जब उसकी पहली नौकरी लगी थी, और फिर वो दिन जब उसने शादी के बाद धीरे-धीरे अपनी दुनिया अलग बना ली थी।
आँखें नम हो गईं, लेकिन इस बार शिकायत के आँसू नहीं थे—यह आत्मस्वीकृति के आँसू थे।
उन्होंने क़लम उठाई और लिखा—
“समय बदलता है, रिश्ते भी बदलते हैं, लेकिन माँ होने का अर्थ कभी नहीं बदलता। शायद प्रेम अधिकार नहीं, समर्पण माँगता है।”
वह मुस्कुराईं, जैसे वर्षों बाद कोई बोझ हल्का हो गया हो।
अगली सुबह, उन्होंने ख़ुद से एक वादा किया—अब रिश्तों को बाँधने की नहीं, उन्हें समझने की कोशिश करेंगी। बेटे को फोन लगाया, और पहली बार बिना किसी शिकायत, बिना किसी अपेक्षा के सिर्फ़ इतना कहा—
“बेटा, आज घर आओ, बहुत दिनों से तुमसे मिले बिना मन नहीं लग रहा।”
सामने से कुछ पल ख़ामोशी रही, फिर बेटे की आवाज़ आई—“हाँ माँ, मैं आऊँगा।”
खिड़की से आती ठंडी हवा में एक नई ताज़गी थी। शायद यह आत्ममंथन का अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरूआत थी।
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