गाँव - पहले वाली बात
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Mar 2019
इतनी जल्दी बदल गये
कैसे अपने जज़्बात?
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
1.
ननद और भौजाई जहाँ
मिल गीत फागुनी गाती थी,
गालों पर एक दूसरे के ख़ूब
अबीर गुलाल लगाती थी,
स्वास्तिक और तोरण से
जहाँ द्वार सजाये जाते थे,
टेसू के फूल बाज़ारों से
घर-घर में मँगाये जाते थे,
हर उपले में रहती थी
अजिया के हाथों की छाप।
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
2.
कोतिया और मैना बैलों
की जोड़ी खूब सुहाती थी,
गले में बँधे घुँघुरूओं से
रुनझुन-रुनझुन ध्वनि आती थी,
गौशाला की बदौलत घर में
दूध दही की बहारें थी,
मटकी और मथानी की
आँगन में लगी कतारें थी,
सिंहनी के दाँतों को गिनने की
हर बच्चे में थी औक़ात।
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
3.
बुज़ुर्गों के तन का पहिनावा
खादी कुर्ता और धोती थी,
शान तथा समृद्धि की सूचक
सदरी टोपी होती थी,
शाम ढले चौबारे में जो
मेहमान कभी आ जाते थे,
अतिथि देवोभवो के
भावों से पूजे जाते थे,
स्वागत और सत्कार में
उनके कट जाती थी रात।
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
4.
तिथि त्योहार मनाने में
वो लोग कहाँ कुछ पीछे थे,
अलग-अलग रह करके भी
सब मिलकर एक बग़ीचे थे,
नोन तेल की अदला बदली
पड़ोसियों से की जाती थी,
बिन डेढ़ी और सवाई के
सारी बस्ती ख़ूब खाती थी,
लेन देन में कभी नहीं
रहती थी ब्याज की बात।
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
5.
चार पीढ़ियाँ मिलकर जहाँ
एक साथ रह लेती थीं,
छोटी मोटी बातें आपस
कह सुन और सह लेती थीं,
सास और बहुओं के पहले
कितने मधुर स्वाभाव थे,
एक दूसरे के दिलों में
दोनों के लिये लगाव थे,
नन्ही गुड़िया के आने पर
बँटती थी घर में सौगात।
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
6.
नूपुर और महावर क्यों
अब दिखते नहीं पाँव में?
अलगाव की बात कहाँ से
आयी अपने स्वाभाव में?
क्या किसी को ऐसी उम्मीद
इस पढ़ी लिखी पीढ़ी से थी?
क्या ऊँचाई पर चढ़ने की
सोच इसी सीढ़ी से थी?
पश्चिम ने पूरब पर "अमरेश"
किया कुठाराघात॥
नहीं रही अब गाँव में
वो पहले वाली बात।
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