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जगन्नाथ रथ यात्रा: आस्था, एकता और अध्यात्म का महापर्व

 

पुरी, ओड़िशा में हर साल होने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि भारत की समृद्ध संस्कृति, अटल आस्था और सामाजिक समरसता का जीता-जागता प्रमाण है। यह वह अनुपम अवसर होता है जब स्वयं भगवान नगरवासी बनकर अपने भक्तों के बीच आते हैं, और सजीव संपर्क स्थापित करते हैं। यह उस महान परंपरा का उत्सव है जहाँ ईश्वर अपने मंदिर की मर्यादा से निकलकर समाज की गलियों में उतर आते हैं–बिना भेद, बिना शर्त, केवल प्रेम और करुणा के साथ। 

इस वर्ष यह महापर्व 27 जून 2025 से आरंभ हो रहा है, जो नौ दिनों तक चलेगा। इसकी भव्यता, भावनात्मक गहराई और आध्यात्मिक ऊँचाई हर उस व्यक्ति को स्पर्श करती है जो इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष अनुभव करता है। 

इतिहास और पौराणिकता की गहराई में

इस रथ यात्रा का उल्लेख वेदों, पुराणों और मध्यकालीन संत साहित्य तक में मिलता है। ओड़िशा की यह परंपरा हज़ारों वर्षों पुरानी मानी जाती है। ‘स्कंद पुराण’ में भगवान जगन्नाथ को ‘नीलमाधव’ के रूप में वर्णित किया गया है, और यह यात्रा उसी लोकपरंपरा की निरंतरता है। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार, सुभद्रा देवी ने एक दिन द्वारका नगरी को घूमने की इच्छा प्रकट की। तब भगवान कृष्ण और बलराम ने उन्हें रथ में बैठाकर नगर भ्रमण कराया। उसी घटना का यह पुनर्प्रस्तुतीकरण है, जो सदियों से अनवरत जारी है। 

एक अन्य किंवदंती के अनुसार, जब राजा इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ बनवाईं, तो वे अधूरी रह गईं, परन्तु स्वयं नारायण ने निर्देश दिया कि वे अधूरे ही पूजे जाएँगे—क्योंकि ईश्वर की पूर्णता उसकी अधूरता में ही छिपी होती है। उसी भाव से यह यात्रा भी एक अलौकिक आध्यात्मिक संवाद बन जाती है। 

रथों की भव्यता: शिल्प, श्रद्धा और समर्पण

इस उत्सव की आत्मा हैं—तीनों रथ, जिनका निर्माण हर साल नया होता है। यह कोई सामान्य कारीगरी नहीं, बल्कि श्रद्धा से जन्मी शिल्पकला है। 

नंदीघोष (भगवान जगन्नाथ का रथ): 45 फ़ीट ऊँचा, 16 विशाल पहिए। 

तालध्वज (बलभद्र का रथ): 43 फ़ीट ऊँचा, 14 पहिए। 

दर्पदलन (सुभद्रा का रथ): 42 फ़ीट ऊँचा, 12 पहिए। 

इन रथों का निर्माण ‘दारू’ नीम की लकड़ी से किया जाता है, जो विशेष रूप से चयनित वृक्षों से ली जाती है। लकड़ी के चयन से लेकर उसके काटने, आकार देने और रथ निर्माण तक की प्रक्रिया एक धार्मिक अनुष्ठान होती है, जिसमें मंत्रोच्चार, यज्ञ, और पूजा-पाठ अनिवार्य होते हैं। 

कोई धातु की कील या पेंच प्रयोग नहीं किया जाता—यह पूर्णतः पारंपरिक विधियों से जुड़ा हुआ है। यह अपने आप में एक संदेश है कि आधुनिकता के बीच परंपरा की जड़ें कितनी गहरी हो सकती हैं। 

अनुष्ठान और परंपराएँ: आध्यात्मिक अनुशासन की झलक

रथ यात्रा मात्र एक यात्रा नहीं—बल्कि एक दश-दिवसीय दिव्य परिक्रमा है, जो अनेक पवित्र अनुष्ठानों से जुड़ी होती है। 

स्नान पूर्णिमा: भगवान को 108 कलशों से स्नान कराया जाता है–यह एक भव्य और आह्लादकारी दृश्य होता है। इसके बाद भगवान अनासरा (अवकाश) में चले जाते हैं—मंदिर बंद रहता है, क्योंकि भगवान “बीमार” हो जाते हैं। यह हमारे देवताओं को मानव रूप में अनुभव कराने की परंपरा है—जो उन्हें और अधिक निकट बना देती है। 

पहंडी बिजे: यह वह क्षण होता है जब देवता पालकियों में झूलते हुए रथों तक आते हैं। पुजारीगण, भक्तगण, बाजे-गाजे के साथ वातावरण भाव-विभोर हो उठता है। भगवान का चलना, रुकना, झूमना—यह सब मानवता के स्पर्श को दर्शाता है। 

छेरा पहरा: गजपति महाराज द्वारा सोने की झाड़ू से मार्ग बुहारा जाना केवल परंपरा नहीं, यह एक क्रांतिकारी लोकतांत्रिक प्रतीक है–जहाँ राजा भी भगवान के सामने केवल एक सेवक होता है। 

रथ खींचना: रथ खींचना केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, यह मन और आत्मा को जोड़ने का अनुभव है। रस्सियाँ केवल रथ को नहीं, ईश्वर से भक्त के सम्बन्ध को खींचती हैं। मान्यता है कि जो रथ खींचता है, उसके पाप कट जाते हैं और जीवन में मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। 

गुंडिचा यात्रा और वहाँ का सात दिवसीय ठहराव

रथ यात्रा का गंतव्य गुंडिचा मंदिर है, जिसे भगवान की मौसी का घर कहा जाता है। यह मंदिर प्रतीक है उस भूमि का जहाँ भगवान कृष्ण का बाल्यकाल बीता। यहाँ रथों के ठहरने की अवधि में अडाप मंडप नामक व्यवस्था होती है—जिसमें देवता विश्राम करते हैं। 

यह विश्राम शक्ति संचयन का प्रतीक भी है। जैसे हम जीवन में रुककर स्वयं को फिर से ऊर्जा देते हैं, वैसे ही भगवान भी समाज के बीच रहकर नवीनीकरण करते हैं। 

बाहुड़ा यात्रा: वापसी का अध्यात्म

नौवें दिन देवता अपनी यात्रा पूर्ण करके मुख्य मंदिर लौटते हैं। इसे बाहुड़ा यात्रा कहा जाता है। इस दिन भी भक्तों की वही भीड़, वही उत्साह होता है। 

इसके पश्चात् आता है सुना वेशा—भगवान को सोने के आभूषणों से सजाया जाता है। यह स्वरूप दर्शन करने के लिए देश-विदेश से लाखों भक्त उमड़ पड़ते हैं। इसके बाद रथ पर ही अधर पना नामक पेय भोग रूप में समर्पित किया जाता है, जिसे पितरों की शान्ति हेतु माना जाता है। 

जगन्नाथ रथ यात्रा और भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रतिबिंब

यह रथ यात्रा वास्तव में भारतीय लोकचेतना का आदर्श रूप है। यहाँ जाति, वर्ण, भाषा, प्रदेश, वर्ग, पंथ का कोई भेद नहीं होता। सब एक रस होकर ईश्वर के नाम में लीन होते हैं। 

एक ओर गजपति राजा झाड़ू लगाते हैं, दूसरी ओर दलित, आदिवासी, विदेशी, ब्राह्मण, महिलाएँ—सब रस्सी खींचते हैं। यह दृश्य बताता है कि भक्ति लोकतांत्रिक है, और ईश्वर का राज्य समभाव पर टिका है। 

अंतरराष्ट्रीय प्रभाव और वैश्विक आकर्षण

आज जगन्नाथ रथ यात्रा केवल भारत तक सीमित नहीं रही। दुनिया के अनेक देशों में, विशेषकर अमेरिका, यूके, रूस, जापान आदि में इस्कॉन संस्था द्वारा मिनी रथ यात्राएँ आयोजित की जाती हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि भारतीय संस्कृति अब केवल भारत की नहीं रही, बल्कि विश्व-समुदाय की साझा धरोहर बन गई है। 

निष्कर्ष: जीवन का सार और ईश्वर का साक्षात्कार

जगन्नाथ रथ यात्रा एक ऐसा आध्यात्मिक पर्व है, जहाँ देवता और जन सामान्य एक दूसरे के पास आते हैं। यह भक्ति का उत्सव है, शिल्प का जश्न है, लोक परंपरा का पुनरावर्तन है, और सबसे बढ़कर समानता और एकता का सार्वभौमिक संदेश है। 

इस महापर्व के माध्यम से भारत ने यह सिद्ध किया है कि आध्यात्मिकता केवल मंदिरों तक सीमित नहीं, वह जनजीवन के हर कोने में व्याप्त हो सकती है। यह यात्रा हमें यह भी सिखाती है कि ईश्वर को पाने के लिए हमें ऊँचे मंदिरों की ज़रूरत नहीं, बल्कि नम्र हृदय चाहिए। 

“जय जगन्नाथ” का उद्घोष केवल एक नारा नहीं, यह भारत की आत्मा की पुकार है—जो हर युग में, हर जन के हृदय में अनुगुंजित होती रहेगी। 

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