डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: बलिदान दिवस और उनके संघर्ष की गाथा
आलेख | ऐतिहासिक अमरेश सिंह भदौरिया1 Jul 2025 (अंक: 280, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
हर वर्ष 23 जून को हम डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस के रूप में स्मरण करते हैं। यह दिन भारत की एकता और अखंडता के लिए उनके अतुलनीय योगदान और सर्वोच्च बलिदान की पावन स्मृति है। एक प्रखर राष्ट्रवादी, शिक्षाविद्, चिंतक, कुशल सांसद और भारतीय जनसंघ के संस्थापक के रूप में उनका संपूर्ण जीवन देशसेवा को समर्पित रहा। उनका संघर्ष आज भी हमें राष्ट्रहित के प्रति प्रतिबद्ध रहने की प्रेरणा देता है।
प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और अकादमिक योगदान
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कोलकाता के एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता, सर आशुतोष मुखर्जी, बंगाल के सुप्रसिद्ध शिक्षाविद्, न्यायाधीश तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे।
श्यामा प्रसाद ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता में पूरी की और बाद में अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। 1923 में उन्होंने लंदन से बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त की।
वे 1934 में, मात्र 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे युवा कुलपति बने। इस पद पर रहते हुए उन्होंने शिक्षा के आधुनिकीकरण और भारतीय भाषाओं के संवर्धन के लिए ऐतिहासिक कार्य किए। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि “शिक्षा ही राष्ट्र के विकास की कुंजी है।”
राजनीतिक यात्रा और राष्ट्रसेवा
डॉ. मुखर्जी की राजनीतिक यात्रा 1929 में बंगाल विधान परिषद के सदस्य के रूप में आरंभ हुई। जल्द ही वे अपनी वाक्पटुता, निर्भीकता और राष्ट्रचिंतन के लिए विख्यात हो गए।
स्वतंत्रता के पूर्व, उन्होंने बंगाल में हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा, विशेषकर बंगाल विभाजन के संदर्भ में, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में, पं. जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में आमंत्रित किया। किन्तु नेहरू-लियाक़त समझौता (1950) तथा जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने की नीति से वे असहमत थे। उन्हें लगा कि यह भारत की संप्रभुता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के साथ समझौता है।
इन मतभेदों के चलते उन्होंने 1950 में मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
भारतीय जनसंघ की स्थापना
मंत्रिमंडल से त्यागपत्र के बाद उन्होंने एक ऐसे राजनीतिक दल की आवश्यकता अनुभव की, जो भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद पर आधारित हो। इसी भावना से उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की।
यह दल राष्ट्र की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए प्रतिबद्ध था। उनका उद्देश्य था—“एक ऐसा भारत, जहाँ सभी नागरिक समान अधिकार और सम्मान के साथ जीवन यापन करें।”
बाद में यही दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में विकसित हुआ।
कश्मीर आंदोलन और ऐतिहासिक उद्घोष
डॉ. मुखर्जी के जीवन का सबसे निर्णायक संघर्ष जम्मू-कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे के विरुद्ध था।
उस समय जम्मू-कश्मीर के पास अलग संविधान, अलग झंडा, और अलग ‘सदर-ए-रियासत’ होता था। भारतीय संसद के क़ानून वहाँ सीधे लागू नहीं होते थे।
यहाँ तक कि भारत के अन्य राज्यों के नागरिकों को कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट लेना पड़ता था।
डॉ. मुखर्जी ने इस स्थिति को भारत की संप्रभुता और एकता के लिए चुनौती बताया और प्रसिद्ध नारा दिया—
“एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान— नहीं चलेंगे।” (One country cannot have two constitutions, two prime ministers, and two flags)
उनका विश्वास था कि यदि कश्मीर को विशेष दर्जा मिलता रहा, तो वह भारत से मानसिक दूरी बनाए रखेगा, जिससे राष्ट्र की अखंडता ख़तरे में पड़ सकती है।
अंतिम यात्रा और शहादत
इस असमानता के विरोध में उन्होंने 11 मई 1953 को बिना परमिट जम्मू-कश्मीर जाने का निर्णय लिया।
सीमा में प्रवेश करते ही उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और श्रीनगर में नज़रबन्द रखा गया।
लगभग 40 दिनों तक उन्हें बंदी बनाकर रखा गया।
और फिर— 23 जून 1953 को, रहस्यमय परिस्थितियों में श्रीनगर की जेल में उनकी मृत्यु हो गई।
सरकार ने इसे हृदयगति रुकने से हुई मृत्यु बताया, किन्तु उनके परिवार और समर्थकों ने संदेह प्रकट किया और स्वतंत्र जाँच की माँग की, जो आज तक नहीं हुई।
उनकी मृत्यु ने राष्ट्र को झकझोर दिया, और परमिट सिस्टम को समाप्त करने की माँग और तेज़ हो गई।
विरासत और समकालीन प्रासंगिकता
डॉ. मुखर्जी का बलिदान भारतीय इतिहास का एक अमर अध्याय बन गया।
उनकी शहादत के फलस्वरूप कश्मीर का परमिट सिस्टम समाप्त हुआ।
उनका दिया गया नारा दशकों तक राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बना रहा।
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया, जिससे डॉ. मुखर्जी का स्वप्न साकार हुआ।
जम्मू-कश्मीर को अब भारतीय संघ का समकक्ष राज्य बना दिया गया— ठीक वैसा, जैसा डॉ. मुखर्जी चाहते थे।
उपसंहार: अमर बलिदान की प्रेरणा
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन हमें सिखाता है कि राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए आत्मबलिदान भी वंदनीय होता है।
वे एक ऐसे भारत के स्वप्नदृष्टा थे जहाँ न कोई विशेषाधिकार हो, न कोई भेदभाव—केवल राष्ट्रहित, समानता और संस्कृति का आलोक।
आज जब हम उन्हें याद करते हैं, तो यह केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि एक प्रेरणा का अनुबंध है।
उनकी दूरदर्शिता, संकल्प और राष्ट्रभक्ति आज भी हमें भारत को एक सशक्त, समरस और स्वाभिमानी राष्ट्र बनाने की प्रेरणा देती है।
शत्-शत् नमन!
बलिदान दिवस पर, भारतमाता के इस अमर सपूत को कोटिशः श्रद्धांजलि!
उनका जीवन, उनका संघर्ष और उनका विचार—हमेशा रहेगा हमारे राष्ट्र-चेतना का दीप।
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