ज्वालामुखी
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Jul 2025 (अंक: 280, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मैं चुप हूँ,
जैसे कोई पर्वत—
स्थिर, अचल,
पर भीतर कहीं
लावा खदबदा रहा है।
हर दिन,
ज़िम्मेदारियों की राख
धीरे-धीरे जमती जाती है,
कभी प्रेम की अनकही बातें,
कभी टूटती आकांक्षाएँ—
सब कुछ भीतर ही भीतर
सुलगता रहता है।
चेहरे पर हँसी की परतें हैं,
पर मन की धरती फट चुकी है।
कर्म के खेत में
बीज बोता हूँ हर मौसम,
पर फल नहीं—
बस उम्मीदें उगती हैं।
समाज ने सिखाया—
“पुरुष रोते नहीं,
झुकते नहीं,
बस सहते हैं।”
तो मैं सहता हूँ—
एक वज्र-सी चुप्पी ओढ़े,
अपनों की ख़्वाहिशों में
अपना वुजूद जलाता हूँ।
कभी कोई पूछता नहीं—
“तुम कैसे हो?”
शायद पुरुषों के पास
भावनाओं की कोई
वैधता नहीं होती।
और फिर,
एक दिन अचानक
मेरे भीतर का ज्वालामुखी
फट पड़ता है—
शब्दों में नहीं,
संवेदना की चुप चीखों में।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सांस्कृतिक आलेख
कविता
- अधनंगे चरवाहे
- अनाविर्भूत
- अवसरवादी
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- कुरुक्षेत्र
- कैक्टस
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चैत दुपहरी
- चौथापन
- जब नियति परीक्षा लेती है
- ज्वालामुखी
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- देह का भूगोल
- दो जून की रोटी
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- पगडंडी पर कबीर
- पहली क्रांति
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- बंजर ज़मीन
- बंजारा
- भगीरथ संकल्प
- भाग्य रेखा
- भावनाओं का बंजरपन
- भुइयाँ भवानी
- मन मरुस्थल
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- रातरानी
- लेबर चौराहा
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- शान्तिदूत
- सँकरी गली
- सती अनसूया
- सरिता
- हल चलाता बुद्ध
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
लघुकथा
ललित निबन्ध
चिन्तन
सामाजिक आलेख
शोध निबन्ध
कहानी
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं