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साहित्य का दीप और समय का दर्पण

 

(प्रेमचंद जयंती विशेष)

 

प्रत्येक युग में समय की धारा को दिशा देने वाले कुछ युगद्रष्टा जन्म लेते हैं, जो अपनी लेखनी से न केवल साहित्य का विस्तार करते हैं, अपितु समाज की चेतना को जाग्रत कर, उसे एक नई दृष्टि प्रदान करते हैं। मुंशी प्रेमचंद ऐसे ही कालजयी साहित्यकार थे, जिनके शब्द केवल काग़ज़ों पर नहीं रहते—वे मनुष्यता के अंतःकरण में स्पंदन करते हैं। 

३१ जुलाई, केवल एक जन्मतिथि नहीं, बल्कि उस युगपुरुष के अवतरण का स्मरण है, जिसने साहित्य को राजमहलों की चहारदीवारी से निकालकर ग्राम्य जीवन की धूल में लिपटी सच्चाइयों तक पहुँचाया। जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि क़लम, तलवार से कहीं अधिक परिवर्तनकारी हो सकती है, यदि वह जनमानस की पीड़ा को स्वर दे। 

प्रेमचंद का साहित्य सच्चाई की मिट्टी से गूँथा हुआ ऐसा दीप है, जो न केवल उनके समय की अंधकारपूर्ण विषमताओं को प्रकाशित करता है, अपितु आज भी सामाजिक चेतना के मार्ग को आलोकित करता है। 

‘गोदान’ का होरी, ‘गबन’ की जालपा, ‘निर्मला’ की मासूम पीड़ा या ‘कफन’ की निःशब्द विडम्बना—हर रचना एक ऐसा दर्पण है जिसमें समाज का कुरूप चेहरा उभर आता है, और साथ ही उस कुरूपता को चुनौती देती मानवीय करुणा भी। 

प्रेमचंद ने साहित्य को आत्ममुग्ध सौंदर्यबोध की संकीर्णता से निकालकर, उसे समाज का आईना बनाया। उनका साहित्य केवल आलोचना नहीं, संशोधन की प्रक्रिया भी है। वे मात्र प्रश्न नहीं उठाते, संवेदनशील उत्तरों की खोज में भी सहयात्री बनते हैं। 

उनकी रचनाएँ चकाचौंध भरे शहरी साज-सज्जा से दूर, भारतीय मिट्टी की गंध और गहराई से उपजी हुई हैं। उनके पात्र साधारण हैं—किसान, मज़दूर, स्त्री, वृद्ध, शिक्षक, सेवक—लेकिन उनकी संघर्षगाथाएँ असाधारण हैं। उन्होंने ‘संघर्ष’ को गरिमा दी, ‘दुख’ को सौंदर्य, और ‘त्याग’ को क्रांति। 

उनकी भाषा में कोई आडंबर नहीं—वह जीवन के स्पंदन को सीधे पकड़ती है, जैसे कोई माँ बच्चे का माथा छूकर उसके ज्वर को पहचान ले। 

प्रेमचंद की शैली में न नाटकीयता है, न अतिनाटकीयता—वह ‘जीवन’ के जैसा है, जैसा वह वास्तव में है। 

प्रेमचंद का साहित्य उनके समय की सबसे उपेक्षित और दमित शक्तियों को सशक्त रूप में प्रस्तुत करता है। जहाँ तत्कालीन समाज स्त्री को पराधीनता की प्रतीक मानता था, वहीं प्रेमचंद की रचनाओं में वह संघर्षशील, आत्मनिर्भर और नैतिक बल की वाहिका बनकर उभरती है। 

कृषक केवल शोषण का शिकार नहीं, वह अन्नदाता होते हुए भी अपमान का वरण करता हुआ एक करुण प्रतीक है। 

दलित पात्र प्रेमचंद के यहाँ संवेदनहीन समाज की चुप्पी को तोड़ते हैं। 

वर्तमान समय में जब साहित्य का एक बड़ा भाग प्रदर्शन, भोग और भावशून्यता की ओर अग्रसर है, प्रेमचंद की रचनाएँ मानव-मूल्यों की पुनर्स्थापना का आह्वान करती हैं। 

उनका साहित्य हमें सिखाता है कि क़लम का कार्य केवल वर्णन करना नहीं, जागृत करना है; कि लेखक की भूमिका केवल रचयिता की नहीं, एक सजग प्रहरी की होनी चाहिए। 

प्रेमचंद को स्मरण करना मात्र एक दिवस की औपचारिकता नहीं होनी चाहिए, वरन् यह अवसर हो अपने भीतर की संवेदना को पुनः जाग्रत करने का, अपनी दृष्टि को अधिक व्यापक और अपने लेखन को अधिक उत्तरदायी बनाने का। 

आइए, इस प्रेमचंद जयंती पर हम संकल्प करें कि हम प्रेमचंद को केवल पढ़ेंगे नहीं, उन्हें जीएँगे—उनकी ईमानदारी, संवेदना और सामाजिक दृष्टि को अपने जीवन, व्यवहार और कर्म में स्थान देंगे। और जब कभी हम लिखें, बोलें या निर्णय लें—तब प्रेमचंद की चेतना हमारे अंत:करण से मार्गदर्शन करे। 

“हम नहीं चाहते कि वह साहित्यकार हो जो आत्मा को कुचल दे; 
हम चाहते हैं वह साहित्यकार हो जो आत्मा को जगा दे।”

— मुंशी प्रेमचंद

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