अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 003

बात  बस  इतनी  नहीं  हैं  इस  पार उस पार की।
हालात  बयाँ  कर  रही  हैं  सुर्ख़ियाँ अख़बार की।
मुश्किलों के इस दौर में संकल्प सब मिलकर करें,
रहें अपने घर में  और हिफ़ाज़त  करें परिवार की।


स्वप्न हमारे तुमसे मिलने रात में आयेंगे।
निंदियारे नयनों की  कोरों  में  समायेंगे।
दिल की दहलीज़ पर इक दस्तक होगी,
सुन लेना तुम  भाग  हमारे जग जायेंगे।


सबब  ज़िंदगी  का  सिर्फ़  महफ़िल  से नहीं मिलता।
कोई  दिल से नहीं मिलता किसी से दिल नहीं मिलता।
शौक़ दरियादिली का यहाँ पालें भी तो कैसे,
कहीं दरिया नहीं मिलता कहीं पर दिल नहीं मिलता।


टूटती साँस  में  ज़िंदगी  की  चाह रहती है।
हर   घड़ी  उसको  मेरी  परवाह  रहती है।
कैसे  बचाऊँ  मैं  उसे  दुनिया  की  भीड़ से,
ज़ालिम हर शख़्स की उस पर निगाह रहती है।


नया आसमान   नई   ज़मीन   तलाश  कर।
ज़िंदगी के वास्ते मंज़र हसीन  तलाश  कर।
यदि रखता है तू ज़रा भी  गुमान  हौसले पे,
तो सियासत में सच का यक़ीन तलाश कर।


दर्द दिल में था गहरा मैंने छिपाया नहीं।
तुमने  पूछा  नहीं  मैंने  बताया  नहीं।
राज़ नज़रों का नज़रों ने है पढ़ लिया,
सच कहूँ  आपसे     मैंने पढ़ाया नहीं।


आपका   हँसना  अलग  और   मुस्कराना  है अलग।
चुपके-चुपके इस  तरह  से  दिल  में आना है अलग।
आपकी  जब   याद  आयी   सब  ख़्वाब मीठे हो गए,
दिल्लगी लगी तो अलग थी अब दिल लगाना है अलग।

 

ज्योत्स्ना और जुगनू बस हमसफ़र थे रात भर।
इतने क़यास लग रहे हैं क्यों ज़रा-सी बात पर।
सवालिया-सी  आँखों   पर  त्योरियाँ  चढ़ी हैं,
बस्ती में खलबली-सी है क्यों ज़रा-सी बात पर।

 

कहीं  सामान  गिरवी है, कहीं सम्मान गिरवी है।
कहीं  इंसानियत  गिरवी, कहीं  इंसान गिरवी है।
उठाते जो  यहाँ  गंगाजली  हर बात पर हर पल,
सच तो ये है कि उनका ही ख़ुद ईमान गिरवी है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

Rajender Verma 2020/04/02 06:37 AM

वाह!अति सुंदर

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

लघुकथा

कहानी

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं