अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 003
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक अमरेश सिंह भदौरिया1 Apr 2020 (अंक: 153, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
बात बस इतनी नहीं हैं इस पार उस पार की।
हालात बयाँ कर रही हैं सुर्ख़ियाँ अख़बार की।
मुश्किलों के इस दौर में संकल्प सब मिलकर करें,
रहें अपने घर में और हिफ़ाज़त करें परिवार की।
स्वप्न हमारे तुमसे मिलने रात में आयेंगे।
निंदियारे नयनों की कोरों में समायेंगे।
दिल की दहलीज़ पर इक दस्तक होगी,
सुन लेना तुम भाग हमारे जग जायेंगे।
सबब ज़िंदगी का सिर्फ़ महफ़िल से नहीं मिलता।
कोई दिल से नहीं मिलता किसी से दिल नहीं मिलता।
शौक़ दरियादिली का यहाँ पालें भी तो कैसे,
कहीं दरिया नहीं मिलता कहीं पर दिल नहीं मिलता।
टूटती साँस में ज़िंदगी की चाह रहती है।
हर घड़ी उसको मेरी परवाह रहती है।
कैसे बचाऊँ मैं उसे दुनिया की भीड़ से,
ज़ालिम हर शख़्स की उस पर निगाह रहती है।
नया आसमान नई ज़मीन तलाश कर।
ज़िंदगी के वास्ते मंज़र हसीन तलाश कर।
यदि रखता है तू ज़रा भी गुमान हौसले पे,
तो सियासत में सच का यक़ीन तलाश कर।
दर्द दिल में था गहरा मैंने छिपाया नहीं।
तुमने पूछा नहीं मैंने बताया नहीं।
राज़ नज़रों का नज़रों ने है पढ़ लिया,
सच कहूँ आपसे मैंने पढ़ाया नहीं।
आपका हँसना अलग और मुस्कराना है अलग।
चुपके-चुपके इस तरह से दिल में आना है अलग।
आपकी जब याद आयी सब ख़्वाब मीठे हो गए,
दिल्लगी लगी तो अलग थी अब दिल लगाना है अलग।
ज्योत्स्ना और जुगनू बस हमसफ़र थे रात भर।
इतने क़यास लग रहे हैं क्यों ज़रा-सी बात पर।
सवालिया-सी आँखों पर त्योरियाँ चढ़ी हैं,
बस्ती में खलबली-सी है क्यों ज़रा-सी बात पर।
कहीं सामान गिरवी है, कहीं सम्मान गिरवी है।
कहीं इंसानियत गिरवी, कहीं इंसान गिरवी है।
उठाते जो यहाँ गंगाजली हर बात पर हर पल,
सच तो ये है कि उनका ही ख़ुद ईमान गिरवी है।
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Rajender Verma 2020/04/02 06:37 AM
वाह!अति सुंदर