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सावन में सूनी साँझ

 

इस सावन, 
न तो बादलों की गड़गड़ाहट में मधुरता है, 
न बारिश की बूँदों में वह स्निग्धता—
हर बूँद
एक-एक कर गिरती है, 
जैसे तुम्हारे लौटने की उम्मीदें . . . 
धुलती हुई, 
मिटती हुई। 
 
चौखट पर बैठी हूँ—
पलकों की कोर पर तुम्हारी प्रतीक्षा टिकाए, 
हर आहट पर मन काँप उठता है
और फिर . . . 
सब कुछ शांत हो जाता है
जैसे भीतर कोई टूटकर बैठ गया हो। 
 
काँच की चूड़ियाँ अब भी खनकती हैं, 
पर वह सौंदर्य नहीं रहा
जो तुम्हारी मुस्कान से जग उठता था। 
अब वो खनक
एक अकेली आवाज़ है—
जिसे कोई सुनने वाला नहीं। 
 
सिंदूर की डिबिया
उसी स्थान पर रखी है—
पर अब वह
सुबह की किरण जैसी नहीं चमकती, 
बस प्रतीक्षा की राख समेटे
चुपचाप पड़ी है। 
 
आँगन की तुलसी
धीरे-धीरे मुरझाने लगी है—
शायद वह भी थक गई है
हर दिन तुम्हारे नाम की बाती जलाते हुए। 
और मैं . . . 
मैं अब नहीं रोती
शब्दों में, 
न ही आँखों से—
मैं बस
साँसों के साथ तुम्हारी स्मृतियों को जीती हूँ। 
 
सखियाँ कहती हैं—
“सावन तो प्रिय के लौटने का मौसम है!”
पर वे क्या जानें
कि हर ऋतु, 
जब प्रिय दूर हो, 
विरह का विस्तार भर होती है। 
 
तुम्हारे बिना यह सावन
एक लंबी साँझ बन गया है—
न तो दीप जलते हैं, 
न मन की देहरी पर उजास उतरता है। 
बस धुँधलका है—
ठहरा हुआ, 
नीरव, 
जिसमें
दिशाएँ भी खो गई हैं, 
और प्रतीक्षा भी
एक चुप विलाप बनकर रह गई है। 

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