बलराम जयंती परंपरा के हल और आस्था के बीज
आलेख | सांस्कृतिक आलेख अमरेश सिंह भदौरिया1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
आज भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि है—वह दिन जिसे हमारे गाँव-देहात में हलषष्ठी, ललही छठ या बलराम जयंती कहा जाता है। यह दिन बचपन से ही मेरे मन में एक विशेष स्थान रखता है। बरसात के दिनों में, खेतों में कच्ची मिट्टी की सौंधी महक के बीच, गाँव की महिलाएँ पीली-हरी चुनरी ओढ़े, नदी-तालाब के किनारे पूजा करतीं—यह दृश्य किसी भी मनुष्य को अपनी मिट्टी से जोड़े रखने के लिए काफ़ी था।
श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम, जिनके हाथ में हल था, केवल युद्ध के वीर नहीं थे, बल्कि धरती के सच्चे पुजारी थे। हल, उनके हाथों में, केवल लोहे का औज़ार नहीं—धरती के गर्भ से जीवन निकालने वाली आस्था का प्रतीक था। हलषष्ठी पर माताएँ अपने बच्चों के कल्याण और लंबी उम्र की कामना के लिए व्रत रखती हैं, खेतों में हल चलाना वर्जित होता है। यह विराम हमें बताता है कि खेती केवल उत्पादन नहीं, बल्कि धरती के साथ संवाद है—जहाँ कभी-कभी चुप्पी भी संवाद का हिस्सा होती है।
आज जब हमारे गाँव बदल रहे हैं, खेत सिकुड़ रहे हैं, और खेती करने वाले हाथ शहरों की ओर बढ़ रहे हैं, तब यह पर्व एक आईना बनकर सामने आता है। यह पूछता है—क्या हम बलराम के उस श्रम, उस सहजता, उस अपनापन को भूलते जा रहे हैं जो हमारे समाज की नींव में था?
मैंने अपने बचपन में देखा है—मेरी माँ, बुआ और चाची, हलषष्ठी के दिन सुबह-सुबह उठकर कुएँ से पानी भरतीं, कच्ची धरती पर लकड़ी के आसन पर बैठकर बलराम की कथा सुनातीं। बच्चों के लिए यह कथा कोई पुरानी दंतकथा नहीं, बल्कि खेत, फ़सल, और अपने गाँव के भविष्य की कहानी होती थी।
बलराम जयंती केवल अतीत का स्मरण नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक चेतावनी भी है। अगर हम खेतों को त्याग देंगे, तो केवल अन्न नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति, अपनी जड़ों और अपनी आत्मनिर्भरता को भी खो देंगे।
यह पर्व हमें सिखाता है कि हमें परंपरा के हल से आधुनिकता की बंजर हो रही चेतना में भी आस्था, श्रम और संवेदनशीलता के बीज बोते रहना चाहिए। तभी धरती भी मुस्कुराएगी और आने वाली पीढ़ियाँ भी इस मिट्टी की महक पहचान पाएँगी।
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