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अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 005

1.
आस्था आडम्बरयुक्त  हुई धरम-करम घट गया।
जोड़ने की शर्त थी  पर टुकड़ा-टुकड़ा बँट गया।
वैमनस्य कटुता यहाँ  खूब फूली फली रिश्तों में,
परिणाम प्रत्यक्ष है आदमी-आदमी से कट गया।
2.
ढूँढ़िये  क़िरदार   ऐसे   भी   मिलेंगे   तथ्य   में।
जल जंगल ज़मीन  का  संघर्ष जिनके कथ्य में।
इतिहास लिखना शेष है उनके हिस्से का अभी,
संदर्भ से  कट  कर  सदा  जिए  जो नेपथ्य  में।
3.
अपराध  की  दुनिया के दृश्य  घिनौने हो  गए।
इंसानियत का क़द घटा किरदार बौने हो  गए।
ढाई आखर पढ़ सकी न शायद हमारी ये सदी,
अंज़ाम उसका  ये  हुआ रिश्ते तिकोने हो गए।
4.
दास्तान-ए-इश्क़ भी  है आग  पानी  की तरह।
महक भी मिलती है इसमें रातरानी  की तरह।
समय जिसका ठीक हो मिलती उसे ख़ैरात में,
वक़्त के मारों को मिलती मेहरबानी की तरह।
5.
चंद सपने  और  कुछ  ख़्वाहिशें हैं आसपास।
दूर ले जाती है मुझको आबो दाने की तलाश।
तन्हाई,   चिंता,   घुटन,   बेबसी,   मज़बूरियाँ,
बदलती हैं  रोज़  अपने-अपने ढ़ंग से लिबास
6.
सोच  भी  सयानी  है  और  सयाने  हैं लोग।
कहने को  तो  सब   जाने-पहचाने  हैं लोग।
फ़ितरत क्या बदली इधर  ज़रा-सी हवा की,
कल तक जो थे अपने आज बेगाने हैं लोग।
7.
लम्हा-लम्हा पढ़ लिया  एक कहानी  की तरह।
रख लिया दिल में उसे एक निशानी  की तरह।
सुनहरी धूप  के झरने-सा सहज   दिन हो गया,
यादें बनी हैं सुरमयी-सी शाम सुहानी की तरह।
8.
किरदार   कैसे-कैसे   आजकल  गढ़   रहा।
तोड़कर  सीढ़ियाँ  वो  शिखर  पे  चढ़ रहा।
जहाँ    में    देखिए   सादगी     का   सबब,
शोरहत की पोथियाँ वो किश्तों  में पढ़ रहा।
9.
जिस्म से  रूह  संबंध  की  पड़ताल कर।
वाज़िब  है  हक़  के  लिए  हड़ताल  कर।
माना  कि मुफ़लिसी ने मजबूर कर दिया,
टूटती है  काएनात  भी  इसी  सवाल पर।
10.
घटाने  व  जोड़ने   का   तज़ुर्बा  जो  पा  गया।
समझो   सुर्ख़ियों   में   उसे   रहना  आ   गया।
कहने  को  तमाम  उम्र  वो  नेकी  के घर  रहा,
फिर बदचलन हवाओं का साथ  कैसे भा गया।

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