अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 005

1.
आस्था आडम्बरयुक्त  हुई धरम-करम घट गया।
जोड़ने की शर्त थी  पर टुकड़ा-टुकड़ा बँट गया।
वैमनस्य कटुता यहाँ  खूब फूली फली रिश्तों में,
परिणाम प्रत्यक्ष है आदमी-आदमी से कट गया।
2.
ढूँढ़िये  क़िरदार   ऐसे   भी   मिलेंगे   तथ्य   में।
जल जंगल ज़मीन  का  संघर्ष जिनके कथ्य में।
इतिहास लिखना शेष है उनके हिस्से का अभी,
संदर्भ से  कट  कर  सदा  जिए  जो नेपथ्य  में।
3.
अपराध  की  दुनिया के दृश्य  घिनौने हो  गए।
इंसानियत का क़द घटा किरदार बौने हो  गए।
ढाई आखर पढ़ सकी न शायद हमारी ये सदी,
अंज़ाम उसका  ये  हुआ रिश्ते तिकोने हो गए।
4.
दास्तान-ए-इश्क़ भी  है आग  पानी  की तरह।
महक भी मिलती है इसमें रातरानी  की तरह।
समय जिसका ठीक हो मिलती उसे ख़ैरात में,
वक़्त के मारों को मिलती मेहरबानी की तरह।
5.
चंद सपने  और  कुछ  ख़्वाहिशें हैं आसपास।
दूर ले जाती है मुझको आबो दाने की तलाश।
तन्हाई,   चिंता,   घुटन,   बेबसी,   मज़बूरियाँ,
बदलती हैं  रोज़  अपने-अपने ढ़ंग से लिबास
6.
सोच  भी  सयानी  है  और  सयाने  हैं लोग।
कहने को  तो  सब   जाने-पहचाने  हैं लोग।
फ़ितरत क्या बदली इधर  ज़रा-सी हवा की,
कल तक जो थे अपने आज बेगाने हैं लोग।
7.
लम्हा-लम्हा पढ़ लिया  एक कहानी  की तरह।
रख लिया दिल में उसे एक निशानी  की तरह।
सुनहरी धूप  के झरने-सा सहज   दिन हो गया,
यादें बनी हैं सुरमयी-सी शाम सुहानी की तरह।
8.
किरदार   कैसे-कैसे   आजकल  गढ़   रहा।
तोड़कर  सीढ़ियाँ  वो  शिखर  पे  चढ़ रहा।
जहाँ    में    देखिए   सादगी     का   सबब,
शोरहत की पोथियाँ वो किश्तों  में पढ़ रहा।
9.
जिस्म से  रूह  संबंध  की  पड़ताल कर।
वाज़िब  है  हक़  के  लिए  हड़ताल  कर।
माना  कि मुफ़लिसी ने मजबूर कर दिया,
टूटती है  काएनात  भी  इसी  सवाल पर।
10.
घटाने  व  जोड़ने   का   तज़ुर्बा  जो  पा  गया।
समझो   सुर्ख़ियों   में   उसे   रहना  आ   गया।
कहने  को  तमाम  उम्र  वो  नेकी  के घर  रहा,
फिर बदचलन हवाओं का साथ  कैसे भा गया।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

लघुकथा

कहानी

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं