कछुआ धर्म
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कभी देखा है कछुआ?
जब भी संकट आए
या तेज़ हवाएँ चलें
तो वह
अपना सिर, अपने पैर
अपने भीतर खींच लेता है।
एक खोल—
जो उसकी दुनिया है।
जहाँ बाहर का शोर
अंदर की शान्ति को
छू नहीं पाता।
उसे मालूम है—
वक़्त बदलेगा।
लहरें थक जाएँगी।
शोर शांत हो जाएगा।
और तब—
वह फिर निकलेगा।
धीमे, मगर स्थिर।
क्योंकि
कछुए की गति भले धीमी हो,
पर उसकी दिशा
कभी डगमगाती नहीं।
आज जब लोग
हर बहाव में बहने लगे हैं,
हर भीड़ का हिस्सा बन
अपना विवेक गिरवी रख आए हैं—
तब
कछुआ धर्म
एक अद्भुत प्रतिरोध है।
जो कहता है—
भीतर लौटो।
अपने खोल में।
अपनी देह से नहीं,
अपने आत्मा के भीतर।
संघर्ष का शोर
तुम्हारे निर्णय को
भटका न पाए।
हर निर्णय
अपनी स्थिरता से लो।
क्योंकि तेज़ दौड़ने वाले
अक्सर ठोकर खाते हैं।
और धीमे चलने वाला कछुआ
अंत में विजय पाता है।
आज की भीड़भरी दुनिया में
कछुआ धर्म
सिर्फ़ आत्मरक्षा नहीं,
एक दर्शन है।
जो सिखाता है—
कब लड़ना है,
कब छुप जाना है,
और कब
सिर ताने
अपनी राह पर बढ़ना है।
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