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बबूल

 

मैं बबूल हूँ—
ना गुलमोहर, ना अशोक, 
मेरी काया में ना सौंदर्य, 
ना ही कोई शाही छाँव। 
पर मैं खड़ा हूँ—
धरती की दरारों से उपजा हुआ
जैसे भूख से लड़ता किसान
या गाँव की पगडंडी पर
बिना चप्पल के चलता बच्चा। 
 
ना मुझे किसी ने रोपा, 
ना कोई माली आया पास, 
मैं उगा, बस यूँ ही—
जैसे ग़रीबी उगती है
हर सिस्टम की अनदेखी में। 
 
मेरे काँटे
मेरी मजबूरी नहीं, 
मेरे उत्तर हैं—
उन सवालों के
जो पूछे ही नहीं गए
ग़रीब की आँखों से। 
 
मैंने चीलों को देखा है, 
मेरे तनों पर विश्राम करते हुए—
वे ठीक वैसी हैं
जैसे सत्ता, 
जो मेरी छाया को
अपने पक्ष में बाँधना चाहती है। 
 
मुझ पर कोई सपना नहीं टाँका गया, 
ना ही किसी बच्चे ने मुझसे कहा—
“चलो पेड़ लगाएँ।”
मैं वो पेड़ हूँ, 
जिसे लगने नहीं दिया जाता, 
जो ख़ुद उग आता है
जैसे प्रतिरोध। 
 
मुझे मत काटो—
मुझसे सीखो
कि जीना
सिर्फ़ सजने-सँवरने का नाम नहीं—
बल्कि हर मौसम में
टिके रहने की हिम्मत है। 
 
मैं बबूल हूँ—
उस वर्ग की आवाज़, 
जो अब भी
धरती की सबसे नीचे वाली परत पर
साँस ले रहा है। 
 
जब तक शोषण रहेगा, 
मैं उगता रहूँगा। 
जब तक अन्याय की धूप है, 
मैं छाँव देता रहूँगा—
भले काँटों से सही।

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