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हरि का मित्र

 

एक दिन भगवान कृष्ण द्वारका में अपने महल की बालकनी से नीचे देख रहे थे। 

रथ पर सवार अर्जुन आ रहा था— तेज़ चाल, ऊँचा मस्तक, रत्नजटित धनुष। 

कृष्ण मुस्कराए। 

पीछे-पीछे एक थका-हारा किसान पैदल चला आ रहा था। उसके कंधे पर एक गठरी थी, और माथे पर पसीना। 

कृष्ण ने सुदामा से पूछा, “बताओ सखा, इन दोनों में मेरा सच्चा मित्र कौन है?” 

सुदामा मुस्कराए, “प्रभु, अर्जुन तो आपके साथ युद्ध लड़ा है, गीता सुनी है . . . पर यह किसान?” 

कृष्ण बोले, “चलो, परखते हैं।”

कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, “यदि मैं कभी सब कुछ भूल जाऊँ, तुमसे मुँह फेर लूँ, तो क्या करोगे?” 

अर्जुन ने उत्तर दिया, “मैं फिर भी आपको याद दिलाऊँगा कि आप कौन हैं। मैं आपको झकझोर दूँगा, आपको आपका विराट स्वरूप दिखा दूँगा।”

कृष्ण ने सिर झुकाया और किसान की ओर देखा। 

“और तुम?” उन्होंने पूछा। 

किसान ने नम्रता से कहा, “प्रभु, यदि आप मुझे भूल भी जाओ, तो भी मैं यह कभी नहीं भूलूँगा कि मैं आपका हूँ। आप मुझे पहचानें न पहचानें, 
मेरे लिए आप वही रहेंगे— मेरे कृष्ण।”

कृष्ण की आँखें छलछला गईं। 

सुदामा समझ चुके थे—

मित्र वह नहीं, जो तुम्हारे साथ राजसिंहासन पर दिखे, बल्कि वह है, जो तुम्हारे मौन में भी तुम्हारा नाम ले। 

दार्शनिक निहितार्थ:

सच्ची मित्रता किसी देह, स्थिति या लाभ की नहीं, आत्मा की पहचान की होती है। 

वह केवल साथ चलने का नाम नहीं, बिना कहे साथ होने का अनुभव है। 

जैसे प्रभु और भक्त के मध्य प्रेम में कोई संधि नहीं होती—

फिर भी वह सबसे अडिग, सबसे सच्चा सम्बन्ध होता है। 

उसी तरह सच्चा मित्र वह नहीं जो केवल तब दिखे जब आप स्मरणीय हों, 

बल्कि वह है, जो तब भी आपको न भूले जब आप स्वयं को भूल चुके हों। 

मित्रता तब ईश्वरीय हो जाती है, 

जब उसमें न अपेक्षा रह जाती है, न अधिकार—बस एक मौन प्रतीक्षा, एक निःशब्द विश्वास और एक स्थायी समर्पण बचता है। 

जो मित्र आपके वैभव में नहीं, आपकी विस्मृति में भी आपका बना रहे, वह न केवल आपका मित्र है—बल्कि वह आपकी आत्मिक यात्रा का सहचर और ईश्वर के सान्निध्य का प्रतीक होता है। 

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