शान्तिदूत
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया15 Jun 2025 (अंक: 279, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(दर्शन और पुरुषार्थ के धरातल पर दो युगों की संधि)
दृश्य-एक: श्रीकृष्ण–समय की देह में चैतन्य की आकृति
वे आये
न किसी घोष के साथ
न किसी जयघोष के,
सिर्फ़ मौन के उजाले में,
जहाँ न्याय की अग्नि धीरे-धीरे राख हो रही थी
और वाणी अपनी ही परछाईं से डरती थी।
सभा थी–
पर उसका केंद्र ग़ायब था।
भीष्म के नेत्र बंद थे,
पर आँखों में असमंजस जल रहा था
जैसे वर्षों का अनुभव अपने ही विचार से पराजित हो गया हो।
द्रोण की मुद्रा एक प्रश्नवाचक चिह्न थी–
‘क्या कर्त्तव्य सदा सत्ता की चौखट पर झुकता है?’
और विदुर की आत्मा,
सभा की दीवारों से सिर टकरा रही थी–
सत्ता के पक्ष में नहीं,
सत्य के पक्ष में कोई स्थान नहीं था वहाँ।
तभी वे आये–
केशव–
युग की प्रतिच्छाया में खड़े हुए,
काले नहीं–अंतर्यामी थे।
वे बोले नहीं पहले,
देखा—
जैसे समय की आँखों में झाँक रहे हों।
फिर बोले–
शब्द नहीं थे, दृष्टियाँ थीं–
हर वाक्य एक प्रश्न था,
हर प्रश्न एक विकल्प।
“क्या राज्य केवल भूमि है?”
“क्या रक्त बिना बहाए परिवर्तन नहीं होता?”
“क्या धर्म तभी जीवित रहता है, जब वह लड़ता है?”
“या फिर धर्म चुपचाप पराजय स्वीकार कर ले?”
कृष्ण किसी पक्ष के नहीं थे–
वे धुरी थे,
जहाँ से दोनों पक्षों की गति प्रारंभ होती है।
उन्होंने पाँच गाँव नहीं माँगे थे–
उन्होंने पाँच अवसर माँगे थे–
बचाने के, सुधारने के,
और भविष्य को पुनः मनुष्य बनाने के।
किन्तु दुर्योधन–
जो मनुष्य नहीं, संकल्प का विषैला रूप था,
वह अचल था–
क्योंकि उसका अहं स्वयं को ईश्वर समझ बैठा था।
कृष्ण उठे–
शान्ति का चक्र अब चुप नहीं था,
क्योंकि
जब मौन भी अन्याय बन जाए,
तो नीति भी युद्ध बन जाती है।
दृश्य-दो: अंगद–रजस्वला पृथ्वी पर धर्म का धैर्य
लंका–
जहाँ सोना दीवारों पर था
और अंधकार आत्मा में।
जहाँ सत्ता ने विचार को बंधक बना लिया था
और स्त्री, केवल विजय का बंधन बन चुकी थी।
वह आया–
अंगद–
एक बालक नहीं,
बल्कि मर्यादा की प्रतिमा
जो राम के अनुशासन से ढली थी,
पर सीता के अपमान से सुलगी थी।
उसने कुछ माँगा नहीं।
उसने कोई सौदे की भाषा नहीं बोली।
वह पाँव जमाकर खड़ा हो गया–
जैसे पृथ्वी ने अपनी थकान को भी संकल्प में बदल दिया हो।
रावण की सभा हँसी से गूँज रही थी–
एक हँसी जो अहंकार से पैदा होती है,
पर अज्ञान से मर जाती है।
अंगद चुप रहा,
क्योंकि कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं
जहाँ शब्द
रण की भूमिका बिगाड़ सकते हैं।
वह कोई संन्यासी नहीं था,
पर युद्ध भी उसका लक्ष्य नहीं था।
वह केवल यह सिद्ध करने आया था
कि सत्य के लिए खड़ा होना ही पर्याप्त है।
यदि तुम उसे हिला नहीं सकते,
तो तुम उसे जीत भी नहीं सकते।
अंगद का पाँव
वह प्रतिमा बन गया
जिसमें शक्ति, शान्ति और सत्य–तीनों मूर्त थे।
रावण, जो युद्ध में अमरता चाहता था,
उसके लिए वह पाँव मृत्यु का निमंत्रण बन गया।
क्योंकि
जो सत्य को हिला नहीं पाता,
वह स्वयं डगमगाने लगता है।
दो युगों में दो पुरुष–
एक नीति में, दूसरा संकल्प में।
एक ने शब्दों से चेताया,
दूसरे ने मौन से।
पर दोनों एक ही बात कहते हैं–
“शान्ति कोई आग्रह नहीं,
वह अंतिम चेतावनी है।
यदि सुन ली जाए,
तो युग बच जाते हैं।
नहीं सुनी जाए,
तो युग जल जाते हैं।”
कृष्ण और अंगद–
वह ‘शान्तिदूत’ नहीं हैं,
बल्कि धर्म की सीमा रेखा हैं,
जहाँ से
नीति रण की ओर प्रवास करती है।
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