अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अधूरी प्रतिध्वनियाँ

 

अर्णव त्रिपाठी का जन्म एक छोटे-से क़स्बे में हुआ था। क़स्बा न तो गाँव की तरह बिलकुल पिछड़ा था और न ही शहर की तरह पूरी तरह आधुनिक। सँकरी गलियाँ, पक्के–कच्चे मकान और गलियों के मोड़ पर सजी चाय की दुकानों में सुबह से ही अख़बार और राजनीति की चर्चा होने लगती। 

अर्णव के पिता वहाँ के एक इंटर कॉलेज में अध्यापक थे—सख़्त लेकिन ईमानदार। माँ गृहिणी थीं—मधुर स्वभाव की, जिनकी हथेलियों की रोटी और प्यार अर्णव की सबसे बड़ी पूँजी थी। घर साधारण था, लेकिन पिता की निष्ठा और माँ की सादगी ने उसमें एक गहरी गरिमा भर दी थी। बचपन से ही अर्णव के भीतर सच बोलने और ईमानदारी निभाने का संस्कार गहरा था। पिता अक्सर कहते—“बेटा, झूठ से कभी जीत नहीं मिलती। सच शायद देर से जीतता है, लेकिन जीतता ज़रूर है।” यह वाक्य अर्णव के भीतर किसी मंत्र की तरह बस गया था। 

स्कूल के दिनों में उसका सबसे क़रीबी दोस्त था—संदीप वर्मा। दोनों साथ खेलते, साथ पढ़ते और भविष्य के सपने बुनते। संदीप थोड़े चालाक स्वभाव का था, लेकिन अर्णव की सादगी और सच्चाई उसे भाती थी। एक दिन वार्षिक परीक्षा का समय आया। संदीप ने अर्णव से कहा, “देखो, मैथ्स के कुछ सवाल मुझे नहीं आते। तुम तो हमेशा पढ़ते रहते हो, ज़रा पेपर में मदद कर देना।” अर्णव चुप रहा। उसके भीतर पिता की सीख गूँज उठी। उसने धीरे से कहा—“संदीप, मैं तुम्हें पढ़ा दूँगा, लेकिन पेपर में चीटिंग नहीं करूँगा।” 

संदीप की आँखों में निराशा और ग़ुस्सा उतर आया। 

“तो दोस्ती किस काम की?” उसने तमतमाकर कहा। 

उस दिन के बाद से दोनों के बीच का रिश्ता धीरे-धीरे ठंडा पड़ गया। संदीप का साथ छूटना अर्णव के लिए पहला बड़ा धक्का था। 

स्कूल की छुट्टियों में वह अक्सर घर की छत पर बैठकर आसमान देखता और सोचता—“क्या सच बोलने का यही अंजाम है? क्या हर रिश्ता सच्चाई से डरता है?” 

माँ उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहतीं—“बेटा, रिश्ते बदलते रहते हैं। लेकिन इंसान का चरित्र वही रहता है। अपने आप पर भरोसा मत खोना।” 

माँ की यह बात उसे थोड़ी राहत देती, लेकिन भीतर एक चुभन हमेशा बनी रहती। 

स्कूल ख़त्म हुआ तो अर्णव ने क़स्बे के डिग्री कॉलेज में दाख़िला लिया। नई भीड़, नए चेहरे और नए रिश्तों का संसार उसके सामने था। वह सोचता—शायद यहाँ कोई ऐसा मिलेगा जो उसे उसके सच के साथ स्वीकार कर ले। 

लेकिन अज्ञात रूप से उसके जीवन का वही सिलसिला यहाँ भी शुरू होने वाला था। 

कॉलेज की दहलीज़ पर क़दम रखते ही अर्णव को एक नई दुनिया मिली। यहाँ पढ़ाई के साथ-साथ बहस, खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रम और अनगिनत चर्चाएँ थीं। क्लासरूम की गंभीरता के बाद कैंटीन का शोरगुल और लाइब्रेरी का सन्नाटा—दोनों ही उसकी दुनिया बन गए। 

इसी कॉलेज में उसकी मुलाक़ात हुई राहुल मेहता से। राहुल हँसमुख था, दोस्त बनाने में तेज़ और हर मौक़े को पकड़ लेने में माहिर। 

पहली ही मुलाक़ात में राहुल ने कहा, “अर्णव, तुम थोड़े अलग क़िस्म के लगते हो। हमेशा गंभीर रहते हो। कभी मस्ती भी किया करो।” 

अर्णव मुस्कराया, “मस्ती भी ज़रूरी है, लेकिन पढ़ाई से भागना मुझे ठीक नहीं लगता।” 

राहुल हँस पड़ा, “यार, यही तो प्रॉब्लम है तुम्हारी। तुम हर बात को आदर्श बनाकर सोचते हो। दुनिया प्रैक्टिकल तरीक़े से चलती है।” 

शुरूआत में दोनों की दोस्ती अच्छी रही। कैंटीन की मेज़ पर बैठकर घंटों राजनीति, साहित्य और भविष्य की बातें करते। लेकिन धीरे-धीरे राहुल की व्यावहारिक सोच और अर्णव की आदर्शवादी दृष्टि टकराने लगी। 

एक दिन कैंटीन में बहस छिड़ी, राहुल बोला, “सिस्टम बदलने की बातें करना आसान है। असल में तो जो जैसा है, वैसा मानकर आगे बढ़ो। थोड़ा समझौता किए बिना कुछ नहीं मिलता।” 

अर्णव ने दृढ़ स्वर में कहा, “समझौते से जो मिलेगा, वह टिकेगा नहीं। ईमानदारी ही असली जीत है।” 

उस दिन के बाद राहुल ने अर्णव से दूरी बना ली। उसे लगा, अर्णव ज़िंदगी से तालमेल बैठाना नहीं जानता। 

कॉलेज में ही अर्णव की पहचान हुई श्रेया सक्सेना से। श्रेया मेधावी छात्रा थी और डिबेट प्रतियोगिताओं में अक्सर प्रथम आती। 

एक बार कॉलेज की बहस प्रतियोगिता में दोनों को एक ही पक्ष में बोलना था। मंच पर साथ खड़े होकर उन्होंने एक-दूसरे को नए नज़रिए से देखा। 

बहस जीतने के बाद श्रेया ने मुस्कराकर कहा, “तुम्हारा तर्क ग़ज़ब का था, अर्णव। सचमुच लगा कि कोई ईमानदारी से बोल रहा है।” 

अर्णव ने पहली बार किसी लड़की की तारीफ़ सुनकर मन ही मन एक अलग सी हलचल महसूस की। 

धीरे-धीरे दोनों के बीच नज़दीक़ियाँ बढ़ीं। लाइब्रेरी की खिड़की के पास बैठकर वे कविताएँ पढ़ते, कभी-कभी कवि सम्मेलनों की चर्चा करते। श्रेया की हँसी अर्णव को भीतर तक छू जाती। 

लेकिन श्रेया का परिवार सम्पन्न था। उसे विदेश में आगे पढ़ाई का अवसर मिल रहा था। एक दिन उसने अर्णव से साफ़ कहा, “अर्णव, मैं तुम्हें बहुत मानती हूँ। लेकिन मेरे माता-पिता कभी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे। मैं उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती।” 

यह सुनते ही अर्णव की आँखें भर आईं। 

उसने धीरे से कहा, “ठीक है श्रेया . . . अगर यही सच है तो मैं इसे भी स्वीकार कर लूँगा।” 

उसके बाद श्रेया धीरे-धीरे दूर चली गई। 

राहुल और श्रेया—दोनों ही अर्णव के जीवन से फिसल चुके थे। वह रातों को देर तक छत पर बैठा आसमान देखता और सोचता—“क्या सचमुच मैं ही ग़लत हूँ? क्यों हर कोई मुझसे दूर चला जाता है?” 

माँ अब भी कहतीं—“बेटा, सच का रास्ता अकेला होता है। लेकिन यही रास्ता सबसे मज़बूत होता है।” 

अर्णव चुप रह जाता, पर उसके भीतर एक ख़ामोश पीड़ा गहराती जाती। 

कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद अर्णव ने विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया। यह जगह क़स्बे के कॉलेज से बिल्कुल अलग थी। यहाँ की लाइब्रेरी में देश-विदेश की किताबें थीं, हर कोने में बहस होती थी, और युवा चेहरे सपनों और महत्वाकांक्षाओं से भरे रहते थे। 

अर्णव का मन यहाँ की पढ़ाई में रच-बस गया। अक्सर उसे लाइब्रेरी के सबसे शांत कोने में किताबों के बीच पाया जा सकता था। 

यहीं उसकी मुलाक़ात हुई प्रियांशु जोशी से। प्रियांशु भी शोधार्थी था और शुरूआत में दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। 

शोध के लंबे सत्रों के बाद कैंपस की गीली घास पर बैठकर दोनों घंटों साहित्य, राजनीति और समाज पर चर्चा करते। 

एक दिन प्रियांशु ने कहा, “अर्णव, तुम बहुत सच्चे हो। लेकिन इतना साफ़़ बोलना हर किसी को रास नहीं आता। लोग नफ़रत करने लगते हैं।” 

अर्णव मुस्कराया, “तो क्या सच्चाई को छिपा लेना चाहिए?” 

प्रियांशु ने कंधे उचकाए, “कभी-कभी हाँ। दुनिया उतनी आदर्शवादी नहीं है जितनी तुम सोचते हो।” 

धीरे-धीरे यह फर्क़ गहराने लगा। 

किसी सेमिनार में अर्णव ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुलकर बोल दिया, जबकि आयोजक प्रियांशु के परिचित थे। इसके बाद प्रियांशु का व्यवहार बदल गया। वह कहने लगा, “तुम्हें हर जगह सच बोलने की आदत छोड़नी चाहिए। यह तुम्हारे ही खिलाफ़ जाएगा।” 

अर्णव चुप रहा। लेकिन भीतर एक और दोस्ती टूटने की आहट उसने महसूस कर ली। 

इसी विश्वविद्यालय में उसकी पहचान हुई साक्षी सिंह से, जो कंचन की सहेली भी थी। साक्षी संवेदनशील थी, पढ़ाई में अच्छी और बातचीत में सधी हुई। 

एक दिन लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर साक्षी ने अचानक कहा, “अर्णव, तुम्हारा सच आकर्षक है, लेकिन टिकता नहीं। लोग सच्चाई से डरते हैं। शायद इसलिए तुम्हें हर बार अकेलापन मिलता है।” 

अर्णव ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में सहानुभूति थी, लेकिन कहीं न कहीं व्यावहारिकता भी झलक रही थी। 

उसने धीमे स्वर में पूछा, “तो क्या मुझे झूठ सीख लेना चाहिए?” 

साक्षी ने सिर हिलाया, “नहीं, लेकिन थोड़ा लचीलापन . . . तभी रिश्ते लंबे चलते हैं।” 

यह वाक्य अर्णव के भीतर गहरे उतर गया। 

वह रात देर तक अपने कमरे में बैठा सोचता रहा—“क्या सचमुच मेरा सच बोझ है? क्या मेरी ईमानदारी ही मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी है?” 

अब तक पाँच लोग—संदीप, राहुल, श्रेया, प्रियांशु और साक्षी—उसके जीवन में आए और धीरे-धीरे उससे दूर होते गए। 

हर बार अर्णव ने पूरी सच्चाई से ख़ुद को सौंपा था, लेकिन नतीजा एक-सा रहा। 

उसकी डायरी में उस रात एक वाक्य दर्ज हुआ—“शायद मैं ही ग़लत हूँ। या शायद यह दुनिया सच के लिए बनी ही नहीं।” 

विश्वविद्यालय की भीड़-भरी गलियों और लंबी-लंबी सीढ़ियों के बीच अर्णव अक्सर अकेला नज़र आता। किताब उसके हाथ में होती, लेकिन मन किसी अधूरे प्रश्न में उलझा रहता। वह पाँच रिश्तों की परछाईं से गुज़र चुका था—हर बार उसने ईमानदारी दी थी और बदले में दूरी पाई थी। 

ऐसे ही एक दिन, विश्वविद्यालय में “फूलों की प्रदर्शनी” का आयोजन हुआ। पूरा कैंपस फूलों की सुगंध और रंग-बिरंगी पंखुड़ियों से भर उठा था। छात्र-छात्राएँ अपने-अपने ढंग से फूलों की सजावट कर रहे थे। 

भीड़ के बीच अर्णव की नज़र एक कोने पर पड़ी—जहाँ एक लड़की गुलाब और गेंदे से “दो हथेलियों में रखा कमल” बना रही थी। 

वह लड़की थी कंचन राय। 

उसके चेहरे पर एक अजीब-सी गहराई थी, जैसे हर फूल से संवाद करती हो। जब उसकी उँगलियाँ पंखुड़ियों को छूतीं, तो मानो पूरा वातावरण ठहर-सा जाता। 

अर्णव कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा। फिर उसने धीरे से पूछा, “ये कमल, इन हथेलियों के बीच क्यों रखा है?” 

कंचन ने ऊपर देखा। उसकी आँखों में आत्मविश्वास और शान्ति का मिश्रण था। 

वह मुस्कुराई, “क्योंकि हथेलियाँ मेहनत की निशानी हैं, और कमल सपनों की। सपने तभी खिलते हैं जब मेहनत की हथेलियाँ उन्हें थाम लें।” 

अर्णव चुप रह गया। 

कंचन के शब्दों ने उसे भीतर तक छू लिया। उसे लगा जैसे पहली बार कोई उसकी सोच की धड़कन को समझ रहा है। 

उस दिन प्रदर्शनी में कंचन की थाली को विशेष सराहना मिली। लेकिन अर्णव के लिए सराहना से ज़्यादा मायने रखता था वह पल, जब उसे लगा—शायद अब कोई है जो उसके सच से भागेगा नहीं। 

धीरे-धीरे अर्णव और कंचन की मुलाक़ातें बढ़ीं। लाइब्रेरी की खिड़की के पास बैठकर वे किताबें साझा करते, कैंपस की लंबी पगडंडियों पर चलते हुए सपनों और समाज पर बातें करते। 

एक शाम, जब सूरज ढल रहा था और पेड़ों की छाया लंबी हो चली थी, कंचन ने कहा, “अर्णव, तुम्हारा सच कठोर नहीं है, बस लोग उसे देखने की हिम्मत नहीं रखते। लेकिन क्या तुम जानते हो? फूल हमेशा सच होते हैं। वे झूठ नहीं बोलते, न किसी को छलते हैं। बस खिलते हैं और ख़ुश्बू बाँट देते हैं।” 

अर्णव ने उसकी ओर देखा। मन में अनजानी हलचल उठी। उसने धीरे से कहा, “तो क्या मैं भी एक फूल बन सकता हूँ?” 

कंचन मुस्कुराई और बोली, “तुम पहले से ही एक फूल हो, अर्णव। बस लोग तुम्हारी ख़ुश्बू को पहचान नहीं पाए।” उस क्षण अर्णव को लगा कि वर्षों का बोझ हल्का हो गया। पाँच रिश्तों की अधूरी प्रतिध्वनियों के बीच कंचन मानो पहला ऐसा फूल थी, जिसने उसकी आत्मा को सुकून दिया। 

रात गहरी थी। विश्वविद्यालय की हॉस्टल की इमारतें अँधेरे में डूबी थीं। दूर कहीं कुत्ते भौंक रहे थे, और खिड़की के पास खड़ा अर्णव चाँद को निहार रहा था। उसके मन में कई दिनों से एक अजीब बेचैनी थी। 

उस रात नींद आई तो सपनों का दरवाज़ा खुला—वह देखता है— वह एक उजाड़ मैदान में खड़ा है। चारों ओर सूखे पेड़, टूटी हुई मिट्टी और बिखरी पंखुड़ियाँ। आसमान धुँधला है, जैसे किसी ने रंग छीन लिया हो। 

वह अकेला है। 

अचानक उसे लगता है कि कोई पुकार रहा है। वह मुड़कर देखता है—कंचन वहाँ खड़ी है। उसके हाथों में एक कमल खिला हुआ है। 

कंचन मुस्कराकर कहती है, “अर्णव, यहाँ मत रुको। यह अंधकार तुम्हें निगल लेगा। आओ, मेरे साथ चलो।” 

फिर जैसे ही वह उसकी ओर बढ़ता है, चारों तरफ़ वही चेहरे उभरने लगते हैं—संदीप, राहुल, श्रेया, प्रियांशु और साक्षी। 
वे सब उसे रोक रहे हैं, जैसे कह रहे हों, “तुम्हारी ईमानदारी तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगी।” 

अर्णव डर से पसीने में भीग जाता है। 

वह पुकारता है, “मैंने तुम्हें सच्चाई दी, फिर क्यों तुम सब दुश्मन बन गए?” उसकी आवाज़ सूने मैदान में गूँजती है, और तभी कंचन आगे बढ़कर उसके हाथों में कमल रख देती है। 

“अर्णव, सच कभी दुश्मन नहीं बनता। सच तो वही फूल है, जो काँटों के बीच भी खिलता है। बस तुम भरोसा मत खोना।” 

अचानक रोशनी का एक झरना उतरता है और पूरा अंधकार मिट जाता है। 

घबराकर अर्णव नींद से जाग गया। उसकी साँसें तेज़ थीं, माथे पर पसीना, और दिल धड़क रहा था जैसे अभी फट पड़ेगा। 

उसने तुरंत मोबाइल उठाया और कंचन का नंबर मिलाया। 

फोन बजते ही कंचन की नींद भरी आवाज़ आई, “अर्णव . . . इतनी रात को? सब ठीक है?” 

अर्णव काँपती आवाज़ में बोला, “कंचन, मैंने आज एक सपना देखा। उसमें सब मुझे छोड़कर जा रहे थे, वही पाँच लोग . . . और तुमने मुझे कमल का फूल थमा दिया। तुमने कहा कि सच फूल है, काँटों में भी खिलता है। कंचन . . . क्या सचमुच ऐसा है? क्या मेरा सच कभी स्वीकारा जाएगा?” 

कुछ क्षण ख़ामोशी रही। फिर कंचन की आवाज़ आई, धीमी लेकिन दृढ़, “अर्णव, सच को दुनिया भले न स्वीकारे, पर ईश्वर हमेशा स्वीकार करता है। और अगर सच में आस्था हो, तो कोई अकेला नहीं होता। याद रखना, मैं तुम्हारे साथ हूँ।” 

अर्णव की आँखों से आँसू बह निकले। 

वह पहली बार महसूस कर रहा था कि उसकी ईमानदारी बोझ नहीं, बल्कि आशीर्वाद है। 

उस रात फोन पर हुई यह बातचीत उनके रिश्ते को एक नई गहराई दे गई। 

सपना भले अधूरा था, लेकिन उसकी प्रतिध्वनि ने उनके जीवन में उम्मीद का फूल खिला दिया था। 

सुबह की धूप खिड़की से छनकर कमरे में फैली तो अर्णव को लगा जैसे रात का सपना अब भी हवा में तैर रहा हो। फोन पर कंचन की आवाज़ उसके भीतर गूँजती रही—“मैं तुम्हारे साथ हूँ।” 

कितनी साधारण-सी बात थी, लेकिन उसके लिए मानो एक युगांतरकारी वाक्य। 

वह सोच रहा था—“क्या यही वह प्रतिध्वनि है, जिसकी तलाश में मैं अब तक भटकता रहा? जो मेरे भीतर की सच्चाई को नकारे नहीं, बल्कि उसे स्वीकार कर ले?” 

उस दिन लाइब्रेरी के कोने में कंचन और अर्णव आमने-सामने बैठे थे। टेबल पर किताबें खुली थीं, लेकिन दोनों का मन कहीं और अटका हुआ था। 

कंचन ने धीरे से कहा, “अर्णव, तुम्हारे सपने ने मुझे भी रातभर सोने नहीं दिया। सोचती रही कि क्यों हर बार तुमको अपने सच की वजह से चोट मिलती है। शायद इसलिए कि लोग सच को बोझ समझते हैं, और तुम उसे वरदान मानते हो।” 

अर्णव ने मुस्कराने की कोशिश की, “क्या सच में वरदान है यह?” 

कंचन ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, “हाँ, क्योंकि यही तुम्हारी सबसे बड़ी ताक़त है। और अर्णव, ताक़त का मतलब हमेशा दुनिया को जीतना नहीं होता . . . कभी-कभी ख़ुद को सँभाल लेना ही सबसे बड़ी जीत होती है।” 

अर्णव की आँखें भीग गईं। 

वह बोला, “कंचन, जिन पाँच लोगों से मैं अब तक गुज़रा—संदीप, राहुल, श्रेया, प्रियांशु और साक्षी—हर एक ने मुझे अधूरा छोड़ दिया। लेकिन तुमने पहली बार मुझे पूरा महसूस कराया है।” 

कंचन ने धीमे स्वर में कहा, “फूल का काम पूरा होना नहीं, खिलना है। अगर वह एक पल भी खिलता है, तो दुनिया उसे याद रखती है। तुम्हारा सच भी एक फूल है, अर्णव। और मैं चाहती हूँ कि यह फूल कभी मुरझाए नहीं।” 

उसने अपने बैग से एक छोटा गुलाब निकाला और अर्णव की किताब के पन्नों में रख दिया। 

“ये फूल तुम्हारे लिए है। जब भी लगे कि सब छूट गया है, इसे देखना। यह याद दिलाएगा कि तुम्हारी सच्चाई अधूरी नहीं है।” 

उस पल अर्णव को लगा कि उसके जीवन के सारे ख़ालीपन भर गए हैं। 

कंचन की आँखों में उसे वही भरोसा दिखाई दिया, जिसकी प्रतिध्वनि उसके भीतर बरसों से गूँज रही थी। 

उसने मन ही मन कहा—“अगर सच्चाई एक बोझ है, तो मैं इसे फूल की तरह ढोऊँगा। और अगर यह प्रतिध्वनि अधूरी है, तो कंचन की आस्था इसे पूरा कर देगी।” 

कहानी यहीं पहुँचकर एक नई शुरूआत का संकेत देती है। अर्णव की ईमानदारी अब अकेलेपन की सज़ा नहीं, बल्कि आत्मिक प्रेम की संगिनी बन चुकी थी। 

♦    ♦    ♦

शहर की शाम ढल रही थी। आसमान पर लालिमा बिखरी थी और गगनचुंबी इमारतों की खिड़कियों से आती रोशनी मानो किसी और ही दुनिया का आभास देती थी। हॉस्टल के अपने छोटे से कमरे की खिड़की पर खड़ी कंचन उस रोशनी और शोर के बीच भी गहरी ख़ामोशी महसूस कर रही थी। 

पिछले कुछ वर्षों में उसका संसार कितनी बार बदल चुका था। अर्णव, जो कभी हर सुख-दुःख में साथ खड़ा था, अब किसी बड़ी कम्पनी में नौकरी करने दूर शहर चला गया था। शुरू-शुरू में फोन, संदेश और मुलाक़ातों की उम्मीदें थीं, पर समय की दौड़ ने उन पलों को पीछे छोड़ दिया। अब उसका नाम सुनना भी कंचन के लिए सिर्फ़ एक स्मृति बन गया था। 

सीमा ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी और शादी कर ली थी। कभी-कभी वह फोन करती, पर बातों के बीच से साफ़ झलक जाता कि उसकी दुनिया अब एकदम अलग हो चुकी है। विशाल अपनी महत्वाकांक्षाओं की सीढ़ियों पर चढ़ता गया; अब उसके पास दोस्ती निभाने का अवकाश नहीं रहा। अमन विदेश चला गया—अपने सपनों की तलाश में, और अपनों को पीछे छोड़कर। 

कंचन खिड़की से बाहर देखती रही। 

“कैसे ये सब लोग मेरे जीवन में आए, मुझे अपने क़रीब लाए, और फिर एक-एक करके दूर होते गए। क्या यही जीवन का सच है? कि लोग सिर्फ़ पड़ाव होते हैं—कुछ देर साथ, फिर बिछड़ जाना तय।” 

उसकी आँखों से आँसू ढुलक पड़े। लेकिन आश्चर्य यह था कि होंठों पर एक हल्की मुस्कान भी आ गई। जैसे उसे पहली बार महसूस हुआ हो कि यह बिछड़न ही उसे भीतर से मज़बूत बना रही है। 

इसी बीच नीचे हॉस्टल के प्रांगण में बच्चों की खिलखिलाहट गूँज उठी। वे गेंद खेल रहे थे। अचानक गेंद खिड़की के पास आकर गिरी। एक नन्हा बच्चा दौड़ता हुआ आया और मासूम मुस्कान के साथ बोला—“दीदी, गेंद फेंक दो ना।” 

कंचन ने झुककर गेंद उठाई। उस मासूम चेहरे की चमक ने उसके भीतर कुछ पिघला दिया। उसने गेंद नीचे फेंक दी। गेंद पकड़कर बच्चे की खिलखिलाहट सुनते ही जैसे वर्षों की थकान मिट गई। उस पल उसे लगा—पूर्णता किसी एक व्यक्ति या रिश्ते से नहीं आती। यह तो जीवन के छोटे-छोटे पलों, रिश्तों और अपने भीतर की करुणा से मिलती है। 

कंचन धीरे-धीरे कमरे में लौटी। उसने मेज़ पर रखी डायरी खोली और लिखना शुरू किया—

“लोग आते हैं और चले जाते हैं। पर उनके आने-जाने से ही जीवन की किताब पूरी होती है। पूर्णता किसी के साथ बने रहने में नहीं, बल्कि हर अनुभव को आत्मसात करने और उससे सीखकर आगे बढ़ने में है।” 

क़लम थमते ही उसके भीतर एक अनकहा सुकून उतर आया। बाहर अँधेरा गहरा रहा था, पर कंचन के मन में रोशनी थी—एक ऐसी रोशनी जो उसे जीवन की सच्चाई का सामना करने की ताक़त दे रही थी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 तो ऽ . . .
|

  सुखासन लगाकर कब से चिंतित मुद्रा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सामाजिक आलेख

किशोर साहित्य कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक आलेख

साहित्यिक आलेख

कहानी

लघुकथा

चिन्तन

सांस्कृतिक कथा

ऐतिहासिक

ललित निबन्ध

शोध निबन्ध

ललित कला

पुस्तक समीक्षा

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं