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पूर्वजों की थाती

 

हमारे पूर्वज
किसी पीतल की मूर्ति में नहीं बसते, 
न ही मात्र इतिहास की धूल में दबे हुए कोई अध्याय हैं। 
वे तो समय की धड़कनों में गुँथे हुए
वो विचार हैं—
जो जीवन को केवल जीना नहीं, 
समझना सिखाते हैं। 
 
उनकी थाती
केवल खेत-खलिहान, घर-द्वार, 
या कोई पुरानी वसीयत नहीं—
वह एक जीवंत परंपरा है
जो “होने” से पहले
“होने का अर्थ” पूछती है। 
 
यह थाती
हमें स्मरण कराती है कि
मनुष्य होना
केवल देहधारी होना नहीं, 
बल्कि उत्तरदायी होना है—
उन मूल्यों का वाहक, 
जो सत्य, प्रेम और करुणा से बने हैं। 
 
जब हम
भौतिक समृद्धियों की होड़ में
मानवता की साख गिरवी रख देते हैं, 
तब यही थाती
हमारे भीतर की अंतरात्मा को
धीरे से टोक देती है—
“क्या यही विरासत है
जिसके लिए तुम्हें जन्म मिला?” 
 
पूर्वजों की थाती
कभी शंखध्वनि नहीं करती, 
वह तो मौन में बोलती है—
आँखों की शर्म, 
कर्म की निष्ठा, 
और विचार की शुचिता के रूप में। 
 
आज जब
हम आधुनिकता की रफ़्तार में
जड़ों से कटते जा रहे हैं, 
तो यह थाती
जड़ नहीं, एक दर्पण बन जाती है—
जो दिखाती है कि
हमारे पंखों को
आकाश नहीं, 
मूलों की मिट्टी उड़ने की दिशा देती है। 

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