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आज़ादी के आठ दशक

 

भारत अपनी आज़ादी के आठ दशकों की यात्रा पूर्ण करने जा रहा है। यह केवल वर्षों का कोई ठंडा आँकड़ा भर नहीं, बल्कि एक राष्ट्र की सामूहिक चेतना, संघर्ष, त्याग, सपनों और आशाओं का एक विराट और रंग-बिरंगा कैनवस है, जिस पर अनगिनत हाथों का परिश्रम और असंख्य बलिदानों का रक्त-स्वेद अंकित है। 1947 में ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर हमने जिस स्वप्न-संसार की ओर पहला क़दम रखा था, वह यात्रा आज भी उसी जोश और विश्वास के साथ जारी है—कभी विजय के उल्लास से सराबोर, तो कभी ठहराव और आत्ममंथन के गंभीर क्षणों में डूबी हुई। इन आठ दशकों में हमने कठिन राहें तय की हैं। हमने अकाल देखे, विभाजन का दर्द सहा, सीमाओं की रक्षा में असंख्य जवानों को खोया, और भीतर के संघर्षों को भी झेला। लेकिन इन्हीं वर्षों ने हमें हरित क्रांति की ताज़गी दी, औद्योगिक प्रगति की गति दी, अंतरिक्ष में उड़ान भरने का आत्मविश्वास दिया। गाँव से लेकर महानगर तक, शिक्षा से लेकर विज्ञान तक, हमने अपनी संभावनाओं की सीमाओं को बार-बार चुनौती दी और उनसे आगे बढ़ने का साहस दिखाया। फिर भी, यह सच स्वीकारना होगा कि यात्रा पूरी नहीं हुई है। रास्ते में कई ऐसे मोड़ हैं जहाँ हम रुककर सोचते हैं—क्या हमने वह सब हासिल कर लिया, जिसका सपना आज़ादी के समय देखा गया था? समाज में व्याप्त असमानताएँ, बेरोज़गारी, पर्यावरण संकट और नैतिक मूल्यों का क्षरण हमें अब भी झकझोरता है। स्वतंत्रता का अर्थ केवल बाहरी बंधनों से मुक्ति नहीं, बल्कि भीतर की कुरीतियों और संकीर्णताओं से भी मुक्ति है—और यह संघर्ष आज भी जारी है। 

मेरे लिए, यह आठ दशक एक दर्पण की तरह हैं—जिसमें मैं अपने देश को कभी युवा और उत्साही देखता हूँ, तो कभी थका हुआ और उलझनों में घिरा हुआ। लेकिन इस दर्पण में सबसे गहरी और स्थायी छवि वही है—एक अटूट विश्वास की, कि हम चाहे जितनी बार ठोकर खाएँ, अंततः आगे बढ़ना ही हमारी नियति है। यही विश्वास हमें अगले दशक की ओर ले जाएगा, जहाँ नए सपने होंगे, नई चुनौतियाँ होगी, और उन्हें पूरा करने का संकल्प भी उतना ही दृढ़ होगा। स्वतंत्रता के इन वर्षों में हमने अनेक मोर्चों पर उल्लेखनीय और गर्व से भर देने वाली प्रगति की है। जिस लोकतंत्र को हमने आज़ादी के पहले दिन एक नन्हे पौधे की तरह रोपा था, वह अब एक विशाल वटवृक्ष बनकर अपनी छाया में करोड़ों नागरिकों को समान अधिकार और अवसर देने का प्रयास कर रहा है। संविधान के आदर्श—न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व—सिर्फ काग़ज़ पर नहीं, बल्कि देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में मार्गदर्शक दीपक की तरह जलते रहे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हमारे क़दम कभी हिचकिचाए नहीं; हमने सीमित संसाधनों के बावजूद ऐसे प्रयोग किए जिन पर आज दुनिया हैरानी से नज़र डालती है। कृषि में हरित क्रांति ने हमें अकाल के डर से मुक्त किया और खेत-खलिहानों को अन्न से लबालब भर दिया। श्वेत क्रांति ने दूध की नदियाँ बहाकर गाँव-गाँव में पोषण और आजीविका का संबल दिया, वहीं नीली क्रांति ने समुद्र की गहराइयों में भी हमारे श्रम और विज्ञान की छाप छोड़ दी। और फिर अंतरिक्ष का वह अद्भुत अध्याय—जब हमारे वैज्ञानिकों ने ‘चंद्रयान’ और ‘मंगलयान’ के ज़रिये यह संदेश दिया कि भारत केवल धरती तक सीमित नहीं है, बल्कि अनंत आकाश में भी अपनी पहचान गढ़ने की क्षमता रखता है। यह सब किसी चमत्कार से कम नहीं था, बल्कि हमारे सामूहिक धैर्य, अनुशासन, और अनथक परिश्रम का प्रमाण था। 

मेरे लिए, यह उपलब्धियाँ केवल समाचारों की सुर्ख़ियाँ या आँकड़ों की सूची नहीं हैं; ये उन करोड़ों साधारण भारतीयों के सपनों की परिणति हैं, जिन्होंने अपने पसीने से मिट्टी को सींचा, अपने मस्तिष्क से नई तकनीक गढ़ी, और अपने साहस से असम्भव को सम्भव कर दिखाया। यह यात्रा बताती है कि अगर मन में संकल्प अडिग हो, तो कोई भी सपना दूर नहीं। लेकिन इन स्वर्णिम उपलब्धियों के साथ-साथ चुनौतियों का एक लंबा साया भी हमारी यात्रा के साथ चलता रहा—कभी हमारे क़दमों को धीमा करता हुआ, कभी हमारी आँखों के सामने कठोर यथार्थ का आईना रख देता हुआ। ग़रीबी आज भी अनेक घरों के द्वार पर दस्तक देती है; अशिक्षा अब भी कई बच्चों के जीवन से उजाले को दूर रखती है; और बेरोज़गारी युवा पीढ़ी के सपनों को अधूरा छोड़ देती है। स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता ने यह सिखाया कि केवल दवाएँ और अस्पताल पर्याप्त नहीं, बल्कि व्यवस्था में संवेदनशीलता और समान अवसर भी ज़रूरी हैं। भ्रष्टाचार ने अनेक बार विकास की गति को जकड़ लिया और सामाजिक विषमताएँ—जाति, लिंग, और आर्थिक अंतर—अब भी हमारे सामाजिक ताने-बाने को कमज़ोर करती हैं। पर्यावरण संकट ने यह चेतावनी दी है कि यदि हमने प्रकृति के साथ संतुलन नहीं साधा, तो हमारी प्रगति का आधार ही डगमगा जाएगा। 

लोकतांत्रिक संस्थाओं का संरक्षण भी एक स्थायी चुनौती है। यह केवल इमारतों और क़ानूनों की रक्षा भर नहीं, बल्कि उस भरोसे की रक्षा है जो नागरिक इन संस्थाओं पर करते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जो किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की आत्मा है, को बनाए रखना आज उतना ही ज़रूरी और उतना ही कठिन है, जितना स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में था। सामाजिक न्याय की स्थापना भी अधूरी है—हमने दिशा तय कर ली है, पर मंज़िल तक पहुँचना अभी बाक़ी है। मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता है—क्या यह चुनौतियाँ हमारी कमज़ोरी हैं, या वही कसौटियाँ हैं जिन पर हमें ख़ुद को और अपने लोकतंत्र को हर दिन परखना है? शायद इन्हीं संघर्षों के बीच हमारी असली ताक़त छुपी है, और इन्हें पार करने का संकल्प ही हमारी यात्रा को अर्थ देता है। आज, जब हम आठ दशक की इस यात्रा के मुक़ाम पर खड़े हैं, तो यह सिर्फ़ जश्न मनाने का क्षण नहीं, बल्कि गहरी ज़िम्मेदारी को महसूस करने का भी समय है। स्वतंत्रता केवल एक ऐतिहासिक उपलब्धि भर नहीं, जिसे हम सालगिरहों पर याद करके संतोष पा लें; यह एक सतत उत्तरदायित्व है, जिसे हर पीढ़ी को अपनी जागरूकता, कर्म और नैतिक साहस से निभाना होता है। 

हमें बार-बार उस पीढ़ी के संघर्ष को स्मरण करना चाहिए, जिसने अपने घर-परिवार, सुख-सुविधाएँ, यहाँ तक कि अपना जीवन तक त्यागकर यह स्वाधीनता हमें सौंपी। उनकी आँखों में सिर्फ़ एक सपना था—एक स्वतंत्र, न्यायपूर्ण, और आत्मनिर्भर भारत का सपना। उन्होंने यह नहीं सोचा कि इस स्वतंत्रता के लाभ वे स्वयं भोग पाएँगे या नहीं; उन्होंने यह सोचा कि आने वाली पीढ़ियाँ सम्मान और स्वाभिमान के साथ जी सकेंगी। अब वह ज़िम्मेदारी हमारे कंधों पर है। हमें ख़ुद से यह सवाल पूछना होगा—हम आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसा भारत छोड़कर जाएँगे? क्या वह ऐसा देश होगा जहाँ अवसर समान होंगे, न्याय त्वरित और निष्पक्ष होगा, प्रकृति संरक्षित होगी और लोकतंत्र जीवंत रहेगा? या फिर ऐसा भारत, जहाँ उपलब्धियाँ तो होगी, लेकिन उनके फल से बहुत से लोग वंचित रहेंगे? मेरे लिए, इस आत्ममंथन का अर्थ यही है कि हम हर दिन अपने कर्मों और निर्णयों से इस स्वतंत्रता को मज़बूत करें—ताकि जब आने वाली पीढ़ियाँ इतिहास के पन्ने पलटें, तो वे हमें गर्व और कृतज्ञता के साथ याद करें, न कि उपेक्षा और निराशा के साथ। 

इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है—राष्ट्र निर्माण के प्रति अटूट ईमानदारी, गहरी संवेदनशीलता और दूर तक देखने वाली दृष्टि। आज जब दुनिया तेज़ी से बदल रही है, तो केवल आर्थिक या तकनीकी तरक़्क़ी ही पर्याप्त नहीं; हमें यह भी देखना होगा कि इस तरक़्क़ी के साथ हमारे मानवीय मूल्य कहीं पीछे न छूट जाएँ। तकनीकी प्रगति हमें गति देती है, लेकिन यह गति तभी सार्थक है जब वह मानवीय करुणा, न्याय और समानता के साथ संतुलित हो। यदि मशीनें तेज़ हों और दिल कठोर, तो विकास का अर्थ खो जाता है। हमें ऐसा वातावरण बनाना होगा, जिसमें विज्ञान और संवेदना, उद्योग और नैतिकता, प्रगति और पर्यावरण—सभी एक साथ आगे बढ़ें। विकास केवल आँकड़ों की वृद्धि नहीं, बल्कि ऐसा होना चाहिए जिसमें हर वर्ग, हर क्षेत्र, और हर व्यक्ति की भागीदारी हो। कोई गाँव, कोई बस्ती, कोई समुदाय पीछे न रह जाए—यही समावेशी विकास का सार है। 

लोकतांत्रिक आदर्श—स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व—सिर्फ संविधान की प्रस्तावना में दर्ज शब्द न रहें, बल्कि वे हमारे व्यवहार, नीतियों और निर्णयों में जीवित रहें। किताबों में पढ़े गए आदर्शों को जीवन में उतारना ही असली नागरिकता है, और यही वह आधार है जिस पर हम आने वाले दशकों का भारत खड़ा करेंगे। मेरे मन में विश्वास है कि यदि हम ईमानदारी से इस राह पर चलें, तो न केवल वर्तमान पीढ़ी, बल्कि आने वाली पीढ़ियाँ भी गर्व से कह सकेंगी—हाँ, हमने अपने समय में अपनी ज़िम्मेदारी निभाई। आज़ादी के आठ दशक हमें एक ओर गर्व से भर देते हैं, तो दूसरी ओर यह याद भी दिलाते हैं कि स्वतंत्रता कोई स्थिर अवस्था नहीं, बल्कि निरंतर जागरूकता और कर्म की माँग करने वाली यात्रा है। यह समय केवल उपलब्धियों का उत्सव मनाने का नहीं, बल्कि आत्ममंथन का है—हमने क्या पाया, क्या खोया, और आने वाले वर्षों में हमारी दिशा क्या होगी। स्वतंत्रता की यह ज्योति केवल हमारे हाथों में जलती मशाल भर नहीं है, यह हमारी सामूहिक चेतना में गहरे जलता हुआ वह दीपक है, जो हमें अँधेरों से बचाता है और सही राह दिखाता है। यदि हम इसे सहेजकर, सँभालकर, आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचा सके, तभी हम उन अनगिनत बलिदानों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर पाएँगे, जिनकी आहुति से यह भारत स्वतंत्र और स्वाभिमानी खड़ा है। 

हमारी ज़िम्मेदारी है कि यह मशाल कभी मंद न पड़े—कि हमारे सपनों का भारत केवल काग़ज़ के पन्नों या भाषणों में न रहे, बल्कि गाँव-गाँव, शहर-शहर, हर घर और हर दिल में साँस लेता हुआ, जीवित और उज्ज्वल बना रहे। यही हमारे समय का सबसे बड़ा व्रत है, और यही हमारे होने का सबसे बड़ा प्रमाण। 

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