नदी और तालाब
कथा साहित्य | लघुकथा अमरेश सिंह भदौरिया1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
तालाब से नहीं रहा गया, उसने पूछ ही लिया नदी से, “तुम इस तरह भटकती हुई कहाँ जा रही हो?”
नदी ने बड़े लहज़े से कहा, “अपनी मंज़िल की ओर जो मेरे जीवन का स्वर्णिम स्वप्न है।”
तालाब ने कहा, “मुझे देखकर तुमको ये नहीं लगता कि तुम जिस ख़ुशी की तलाश में इधर-उधर भटक रही हो वह सब मुझे बिना भटके हुए ही मिली है। ख़ुशियों की तलाश में अपने घर को छोड़ना, इस तरह से भटकना भला ऐसा भी कोई स्वप्न है जो तुम्हें अपनी जन्मभूमि से दूर करने के बाद भी आनंद की अनुभूति देता है? क्या तुम्हारी नज़र में घर पर रहने से बड़ा भी कोई आनंद हो सकता है? अब मुझे ही देखिए मैं एक जगह पर रहकर भी प्रसन्न हूँ, सन्तुष्ट हूँ।”
नदी ने तालाब को प्रतिउत्तर दिया, “गतिशीलता का नाम ही जीवन है, ठहराव का नहीं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। मेरी आँखों में सपने हैं, उन्हें पूरा करने का जज़्बा है। जन्मभूमि छोड़ने का साहस भरा संकल्प है। सपने को सच करने के लिए संघर्ष का आशावादी चिंतन है। सफ़र का आनंद मेरी हौसला अफ़्ज़ाई करता है। लहरों का संगीत मेरी यात्रा की थकान को मिटाने का काम करता है। किनारों के साथ कि गई अठखेलियाँ मेरा मनोरंजन है। जब मंज़िल का सफ़र ही इतना आनंदमय है तो मंज़िल मिलने पर तो तुम सहज ही अनुमान लगा सकते हो। अनुमान इसलिए कह रही हूँ कि काश! तुम ये सब महसूस कर पाते? पर तुम तो ठहरे हुए हो तुम्हारा कोई स्वप्न भी नहीं है। जीवन का अनुमान तुम्हें होगा भी कैसे? देखना यही ठहराव एक दिन तुम्हारे स्वरूप को समय की गर्द/काई बनकर तुमको ढक लेगा, तब तुम किसी के अधरों की प्यास भी नहीं मिटा पाओगे, तुम्हारा जीवन अभिशप्त हो जाएगा। मेरी एक बात तुम याद रखना . . . इतिहास सदैव संघर्ष का ही लिखा गया है, ठहराव का नहीं।”
इतना कह कर नदी अपने गंतव्य की ओर चली गई। नदी के मुख से ये दार्शनिक वचन सुनकर तालाब शर्म से पानी-पानी हो गया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अधनंगे चरवाहे
- अनाविर्भूत
- अवसरवादी
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आँगन
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- उपग्रह
- कछुआ धर्म
- कमरबंद
- कुरुक्षेत्र
- कैक्टस
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- गिरगिट
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चूड़ियाँ
- चैत दुपहरी
- चौथापन
- जब नियति परीक्षा लेती है
- ज्वालामुखी
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- दृष्टिकोण जीवन का अंतिम पाठ
- देह का भूगोल
- देहरी
- दो जून की रोटी
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- नयी पीढ़ी
- नेपथ्य में
- पगडंडी पर कबीर
- परिधि और त्रिभुज
- पहली क्रांति
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- फुहार
- बंजर ज़मीन
- बंजारा
- बुनियाद
- भगीरथ संकल्प
- भाग्य रेखा
- भावनाओं का बंजरपन
- भुइयाँ भवानी
- मन मरुस्थल
- मनीप्लांट
- महावर
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- रहट
- रातरानी
- लेबर चौराहा
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- शान्तिदूत
- सँकरी गली
- सती अनसूया
- सरिता
- सावन में सूनी साँझ
- हल चलाता बुद्ध
- ज़ख़्म जब राग बनते हैं
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक आलेख
- कृष्ण का लोकरंजक रूप
- चैत्र नवरात्रि: आत्मशक्ति की साधना और अस्तित्व का नवजागरण
- जगन्नाथ रथ यात्रा: आस्था, एकता और अध्यात्म का महापर्व
- बलराम जयंती परंपरा के हल और आस्था के बीज
- बुद्ध पूर्णिमा: शून्य और करुणा का संगम
- योगेश्वर श्रीकृष्ण अवतरणाष्टमी
- रामनवमी: मर्यादा, धर्म और आत्मबोध का पर्व
- लोक आस्था का पर्व: वट सावित्री पूजन
- विश्व योग दिवस: शरीर, मन और आत्मा का उत्सव
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
ऐतिहासिक
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
ललित निबन्ध
चिन्तन
शोध निबन्ध
कहानी
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं