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बाल दिवस—स्क्रीन और सपनों के बीच एक मौन संघर्ष

 

✍️ अमरेश सिंह भदौरिया

14 नवंबर—यह तिथि केवल कैलेंडर का एक अंक नहीं, बल्कि भारतीय चेतना में बसे उस भाव का स्मरण है, जिसे हम बाल दिवस कहते हैं। यह दिन हमें देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की उस दृष्टि की ओर ले जाता है, जिसमें उन्होंने बच्चों को राष्ट्र का आधार, भविष्य और संभावनाओं का बीज माना था। बच्चों के प्रति उनके स्नेह और विश्वास ने ही उन्हें ‘चाचा नेहरू’ बना दिया—एक ऐसा नाम, जिसमें प्रेम, विश्वास और भविष्य की छाया समाई हुई है। किन्तु समय बदला है। समाज, साधन, समझ और संवेदनाएँ बदली हैं। मैं जब बीते तीन दशकों के अनुभवों के आलोक में इस दिवस को देखता हूँ, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बाल दिवस अब केवल उल्लास और मासूमियत का उत्सव नहीं रहा, बल्कि यह एक प्रश्न है—एक चुनौती—और कहीं न कहीं, एक मौन चिंता भी।

पहले बाल दिवस मिट्टी, खेल, गीतों और सामूहिकता का त्योहार था। बच्चे अपने हाथों से बनाए गए कार्ड लेकर शिक्षकों के पास आते थे। विद्यालयों में कहानियों की वह पुरानी परंपरा जीवित थी, जिसमें शिक्षक केवल ज्ञान नहीं बाँटते थे, बल्कि जीवन की दिशा और दृष्टि भी देते थे। खेल के मैदान में हार-जीत का अनुभव होता था—और उसी अनुभव में धैर्य, सहयोग, विनम्रता और संवाद छिपा होता था। बचपन उस समय केवल आयु का दौर नहीं था—वह अनुभव, आंदोलन और आत्म-निर्माण की प्रक्रिया था। लेकिन आज बाल दिवस एक नई परिभाषा के साथ उपस्थित है। आज की पीढ़ी का बचपन आभासी संसार में आकार ले रहा है। शुभकामनाएँ अब छपे हुए कार्डों में नहीं, बल्कि तत्काल संदेशों और गतिशील चित्रों के रूप में भेजी जाती हैं। खेल भी अब खुले मैदानों में नहीं, बल्कि उपकरणों की स्क्रीन पर सीमित हो गए हैं, जहाँ बच्चे एक ही स्थान पर बैठकर भी एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। उनके पास संबंधों की लंबी सूची अवश्य है, पर संवाद का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है। जानकारी का विस्तार अपार है, किन्तु विचार करने की प्रक्रिया धीरे-धीरे संकुचित होती जा रही है—क्योंकि उपकरण उन्हें वही दिखाते हैं, जिसे वे पहले ही पसंद करते आए हैं। ऐसी स्थिति अनायास ही यह प्रश्न उठाती है—क्या हम अपने बच्चों को भविष्य दे रहे हैं, या धीरे-धीरे भविष्य उनसे छीन रहे हैं?

पंडित नेहरू चाहते थे कि बच्चों में जिज्ञासा हो। वे प्रकृति को समझें, कल्पना करें, तारों की ओर देखकर सोचें कि आकाश कितना विस्तृत है और मेरी उड़ान उससे भी बड़ी हो सकती है। पर आज बच्चा तारों को नहीं देखता—वह पहले से निर्मित आभासी संसार में तारों के नकली संस्करणों से खेल रहा है। कल्पना उसकी अपनी नहीं, उधार की हो गई है। यह कहना ग़लत होगा कि तकनीक शत्रु है। नहीं—तकनीक मनुष्य की उपलब्धि है और आने वाले समय की आवश्यकता। डिजिटल युग को नकारा नहीं जा सकता—परंतु यह भी सत्य है कि तकनीक से चलने वाली पीढ़ी को मानवीय मूल्य, संवाद की कला, भावनाओं की सच्चाई और प्रकृति का बोध मिलना आवश्यक है।

बच्चों को उपकरणों से दूर करना अब केवल माता-पिता की इच्छा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आवश्यकता बन गया है। यदि प्रतिदिन कुछ समय ऐसा निर्धारित किया जाए, जब बच्चा बिना किसी डिजिटल साधन के प्रकृति, कला, साहित्य, खेल और परिवार के साथ समय बिताए—तो यही समय उसके जीवन की सबसे मूल्यवान पूँजी बनेगा। साथ ही यह भी आवश्यक है कि हम उन्हें तकनीक से डराएँ नहीं, बल्कि उसका सचेत उपयोग सिखाएँ। उन्हें यह समझना होगा कि ज्ञान केवल उपकरणों में संग्रहित नहीं, बल्कि अनुभवों और चिंतन के माध्यम से विकसित होता है।

अंत में एक आशा की किरण भी है—आज की पीढ़ी अत्यंत तीव्र बुद्धि वाली है। वह तेज़ी से सीखती है, तर्क करती है और प्रश्न उठाती है। आवश्यकता केवल इतनी है कि हम उनके हाथों में तकनीक दें—पर दिल में संवेदनाएँ; दिमाग में तर्क दें—पर आत्मा में कल्पनाशीलता; और ज्ञान का विस्तार दें—पर जीवन मूल्यों की गहराई भी बनाए रखें।

बाल दिवस उसी अर्थ में सफल होगा जब बच्चे केवल उपकरणों के उपभोक्ता नहीं, बल्कि सृजन के वाहक बनेंगे; जब वे आभासी दुनिया देखेंगे, पर वास्तविक संसार को भी महसूस करेंगे; और जब वे केवल जानकारी से भरे नहीं होंगे—बल्कि विचार, संवेदना और मानवीयता से परिपूर्ण होंगे।

बचपन केवल जीवित रहे—ऐसा नहीं; बचपन उज्ज्वल, संवेदनशील और सार्थक होकर विकसित हो—यही बाल दिवस का सच्चा संदेश है।

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