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एकाकी परिवार

 

चार कमरे, 
एक छत—
फिर भी घर नहीं लगता! 
 
माँ रसोई में
छौंक लगाती है, 
पर अब आवाज़ नहीं लगाती—
“आ जा बेटा, गरम रोटी रखी है।” 
उसकी हथेलियों में अब भी
बचपन की रोटियाँ जलती हैं, 
पर किसी को भूख नहीं लगती। 
 
पिता अख़बार नहीं पढ़ते अब, 
लैपटॉप पर बैठकें करते हैं—
मौन बैठकों में
ज़िंदगी की आवाज़ खो गई है। 
दीवार की घड़ी टक-टक करती है, 
पर किसी के पास वक़्त नहीं। 
 
बेटा—
बोलता कम, टाइप ज़्यादा करता है। 
उसकी उँगलियाँ तेज़ हैं, 
पर भावनाएँ सुस्त। 
उसने बचपन कहीं लॉगआउट कर दिया है। 
 
बेटी—
आईने के सामने मुस्कुराती है, 
कभी-कभी मोबाइल से पूछती है—
“क्या मैं सुंदर हूँ?” 
पर माँ से पूछना भूल गई है। 
 
डाइनिंग टेबल पर अब
सिर्फ़ बरतन खनकते हैं, 
हँसी नहीं। 
दीवारों पर फोटो हैं, 
पर चेहरे बिना भाव के। 
 
कभी–कभी घर
संग्रहालय लगने लगता है—
जहाँ सबकी जगह तय है, 
बस संवादों पर धूल जमी है। 
 
एकाकी परिवार है यह—
जिसमें लोग साथ हैं, 
पर साथ में नहीं हैं। 

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