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पुष्प वाटिका

 

हर मन के भीतर
एक पुष्प वाटिका होती है। 
 
जहाँ खिले होते हैं
स्मृतियों के रंग-बिरंगे फूल, 
कुछ कनेर जैसे कठोर, 
कुछ कचनार-से कोमल, 
कुछ मुरझाए हुए गुलाब
किसी अनकहे दर्द के साक्षी। 
 
वहाँ बसती है
प्रीत की बेल, 
विरह की लताओं में उलझी, 
कभी चंपा-चमेली-सी महकती, 
तो कभी आक के काँटों में उलझती। 
 
कुछ भावनाएँ
सुगंधित रातरानी-सी
अँधेरे में भी महकती हैं, 
और कुछ सम्बन्ध
शूलों की तरह उग आते हैं
हर नई कोंपल के साथ। 
 
इस वाटिका का माली
हर कोई स्वयं होता है, 
कभी प्रेम से सींचता है, 
कभी उपेक्षा से सुखाता है। 
 
और उम्र के किसी मोड़ पर
जब कोई अपना
इस पुष्प वाटिका में
पग रखता है, 
तो कुछ फूल
अनायास ही झर पड़ते हैं। 
 
ये फूल, ये बेलें, 
ये काँटे, ये सुवास—
यही तो है
मनुष्य का भीतर का संसार। 
 
जहाँ जीवन
एक अंतहीन ऋतुचक्र है, 
और हर ऋतु
एक नया फूल
गिराती भी है, 
उगाती भी। 

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