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सैटेलाइट का मोतियाबिंद

 

सैटेलाइट ने दिल्ली का चेहरा उतार लिया—
धुएँ में लिपटा, 
गैस की चादर ओढ़े
एक वैश्विक ख़बर बन गया प्रदूषण। 
 
हर चैनल की आँख में वही तस्वीर—
फेफड़ों पर नक़्शा बनाते आँकड़े, 
मास्क में मुस्कुराती मॉडल, 
“ग्रीन दीवाली” की अपील में
कॉर्पोरेट विज्ञापन की चमक। 
 
लेकिन . . . 
रामदीन के घर की दीवाली फीकी रही। 
मोमबत्ती की लौ तक पहुँच न सकी
स्मार्टफोन के कैमरे तक, 
क्योंकि उसके आँगन में
न कोई फोटोजेनिक धुआँ था, 
न कोई एंगल जो ट्रेंड कर सके। 
 
उसकी पत्नी ने पुराना दिया जलाया, 
तेल बचा लिया कल की सब्ज़ी के लिए, 
बच्चों ने पटाखे नहीं छोड़े—
क्योंकि जेब में फुस्स फुलझड़ी भी नहीं थी। 
 
सैटेलाइट घूमता रहा ऊपर, 
लाखों पिक्सल्स में क़ैद करता
राजधानी का “एयर इंडेक्स।” 
पर उसकी लेंस में धुँधला था
रामदीन का अँधेरा। 
 
शायद सैटेलाइट को भी
मोतियाबिंद हो गया है—
वो सब देखता है
जो बिक सकता है, 
बाक़ी सब
धरती पर छूट जाता है—
धुएँ से भी गाढ़ा, 
ख़ामोशी से भी सघन, 
रामदीन का न दिखाई देने वाला जीवन। 

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