दीपक
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Mar 2019
पुरुषार्थ के स्वर्णिम साँचे में
स्वाभिमान जब ढलता है।
तब दिनकर कहीं निकलता है
तब दिनकर कहीं निकलता है।
1.
तिमिरपाश मिटाने को
नया सवेरा लाने को,
आत्मदान का तेवर ले
कर में संघर्ष कलेवर ले,
जीने की उत्कट चाह लिए
दीपक जब तिल-तिल जलता है।
2.
पाने की बात मिली न कहीं
देने की सनातन रीत रही,
कर्मयोग का हो चिंतन
प्राणोत्सर्ग पर्व बने जीवन,
प्रज्ञा के प्रखर पंथ पर जब
सिद्धान्त स्वयं ही चलता है।
3.
जीवन भर ख़ुद को लुटाया क्या
ख़ुद को खोकर के पाया क्या,
जप तप निष्ठा से शुभ साधन
आलोक पर्व का आवाहन,
समाधिस्त होकर "अमरेश"
मिलती श्रम साध्य सफलता है।
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