चुभते हुए प्रश्न
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Apr 2019
चुभते हुए प्रश्न हैं
कल के...
शेर नहीं हैं किसी
ग़ज़ल के...
अपने हिस्से की मेहनत
दरिया ने हरदम की है,
अभिमानी सागर कब
आया है...
पैरों पर चल के...
शेर नहीं हैं किसी
ग़ज़ल के....
पतित-पावनी सदानीरा में
ज़हर घुल चुका है,
कब बहुरेंगे दिन बोलो
दूषित गंगा जल के,
शेर नहीं हैं किसी
ग़ज़ल के....
सत्ता की साज़िश में
पड़कर,
पांचाली छली गयी है,
शकुनी के हाथों में
अब तक पासे हैं
कौरव दल के...
शेर नहीं हैं किसी
ग़ज़ल के...
जानकी कहाँ सुरक्षित है
अब लक्ष्मण रेखा में,
पहुँच गया पाखंडी रावण
रिश्तों में रूप बदल के...
शेर नहीं हैं किसी
ग़ज़ल के...
अधनंगे चरवाहे तुम
मुफ़लिसी का सच पूछो,
अपनी आँखों से वो
कब देखेगा सपने
मख़मल के...
शेर नहीं हैं
किसी ग़ज़ल के...
झोपड़ी हक़ अब तक
गिरवी है "अमरेश"
अभी कहाँ बदले हैं
इरादे सामंती
राजमहल के...
शेर नहीं हैं किसी
ग़ज़ल के।
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