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लोक आस्था का पर्व: वट सावित्री पूजन

 

भारतीय संस्कृति में पर्व और त्योहार केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं होते, वे जीवन-दर्शन, सामाजिक अनुशासन और सांस्कृतिक उत्तराधिकार के संवाहक भी होते हैं। इन्हीं में से एक है वट सावित्री व्रत, जो विशेष रूप से विवाहित स्त्रियों द्वारा अपने पति की दीर्घायु और पारिवारिक सुख-समृद्धि के लिए किया जाता है। यह पर्व जहाँ सावित्री की नारी शक्ति, संकल्प, धैर्य और प्रेम का प्रतीक है, वहीं वट वृक्ष की पूजा के माध्यम से भारतीय दार्शनिक चेतना में प्रकृति के प्रति गहरे सम्मान का उद्घोष भी करता है। 

पौराणिक संदर्भ और नारी आदर्श

वट सावित्री व्रत की मूल कथा महाभारत में वर्णित है। सावित्री, राजा अश्वपति की पुत्री थीं, जिन्होंने सत्यवान को अपना पति चुना। जब नारद मुनि ने बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं, तब भी सावित्री ने अपने निश्चय से विचलित हुए बिना उनसे विवाह किया। विवाह के बाद जब नियत दिन मृत्यु के देवता यमराज सत्यवान के प्राण हरने आए, तो सावित्री ने अपनी चातुर्य, भक्ति और दृढ़ता से यमराज को संतुष्ट कर अपने पति के प्राण पुनः प्राप्त कर लिए। 

यह कथा केवल एक पौराणिक आख्यान नहीं है, यह भारतीय समाज की उस नारी चेतना का उद्घाटन है जिसमें स्त्री को शक्ति, करुणा और संकल्प का स्वरूप माना गया है। सावित्री का व्यक्तित्व संस्कार, विवेक और प्रेम की त्रिवेणी है, जो आज भी नारी जीवन के आदर्श के रूप में पूजनीय है। 

वट वृक्ष: प्रकृति और प्रतीक

वट (बट, बरगद) वृक्ष भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखता है। यह दीर्घायु, छायादार और जीवनदायी होता है। ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों तक में वट वृक्ष का उल्लेख ज्ञान, तप और आत्मा के प्रतीक के रूप में हुआ है। कहा गया है कि वट वृक्ष ब्रह्मा, विष्णु और महेश—त्रिदेवों का प्रतीक है। 

वट वृक्ष के नीचे बैठकर अनेक ऋषियों ने ज्ञान प्राप्त किया, यही कारण है कि यह वृक्ष चिंतन और साधना का स्थल माना गया। वट सावित्री व्रत में इस वृक्ष की परिक्रमा और पूजन, भारतीय जीवन-दर्शन में प्रकृति और अध्यात्म के सामंजस्य को दर्शाता है। 

लोकाचार और सामाजिक संदेश

वट सावित्री व्रत का एक पहलू सामाजिक एकता और सांस्कृतिक परंपरा से भी जुड़ा है। ग्रामीण भारत में यह पर्व स्त्रियों के लिए सामूहिकता का अनुभव कराता है। महिलाएँ व्रत रखकर पारंपरिक वेशभूषा में सजती हैं, गीत गाती हैं, कथा श्रवण करती हैं, और वट वृक्ष की परिक्रमा करती हैं। 

इस सामूहिक आयोजन में संस्कारों का संचार, आपसी सौहार्द और परंपराओं का संरक्षण सहज रूप से होता है। यह पर्व सिखाता है कि पारिवारिक जीवन केवल भौतिक सुख से नहीं, बल्कि आस्था, कर्त्तव्य और सहनशीलता से पुष्पित होता है। 

दार्शनिक विमर्श: नारी और नियति

वट सावित्री व्रत की कथा का दार्शनिक विश्लेषण करें तो यह केवल पति की दीर्घायु की प्रार्थना नहीं, बल्कि नारी की उस जिजीविषा का प्रतीक है जो नियति को भी बदल सकती है। यमराज को रोककर सावित्री ने यह सिद्ध किया कि धर्म और प्रेम की शक्ति मृत्युलोक की सीमाओं से भी परे जा सकती है। 

यह कथा यह भी कहती है कि नारी केवल समर्पण की प्रतिमूर्ति नहीं, प्रश्न, प्रतिरोध और परिवर्तन की वाहिका भी हो सकती है—बशर्ते उसमें विश्वास और विवेक हो। 

निष्कर्ष: आस्था, परंपरा और आधुनिकता

वट सावित्री व्रत एक ऐसा पर्व है जो हमें अतीत से जोड़ता है, वर्तमान को दिशा देता है और भविष्य के लिए मूल्य स्थापित करता है। यह पर्व नारी की आस्था को नमन है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता है, और भारतीय समाज के उस ताने-बाने का पुनर्स्मरण है जिसमें धर्म, दर्शन और लोक जीवन आपस में रचे-बसे हैं। 

आज जब आधुनिकता के नाम पर परंपराएँ विस्मृत हो रही हैं, तब ऐसे पर्व हमें स्मरण कराते हैं कि आधुनिक होना परंपरा से विमुख होना नहीं, बल्कि परंपरा को नवीन संदर्भ में समझना और जीना ही सच्ची आधुनिकता है। 

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