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चौथापन

 

कहते हैं—
बुढ़ापा . . . 
सिर के बालों से शुरू होता है। 
मैंने देखा है—
कई लोग
कच्ची उम्र में ही
चौथेपन की देहलीज़ पर खड़े मिलते हैं। 
 
जहाँ इच्छाएँ
सिमट जाती हैं
दाल-रोटी और
समाचार चैनल तक। 
 
जहाँ सपनों की चादर
कितनी भी खींचो, 
पाँव खुले ही रह जाते हैं। 
 
चौथापन . . . 
केवल झुर्रियों में नहीं, 
वो आता है
जब मन
अपने ही भीतर सिमटने लगे। 
 
जब हँसी
औपचारिक हो जाए, 
और आँखों में
पानी की जगह
संकोच भर जाए। 
 
जब घर के आँगन में
कभी लगे
फागुन के रंग, 
अब केवल
सफ़ेद चादर के नीचे
साँसें गिनने लगें। 
 
चौथापन
कभी उम्र का नहीं होता, 
ये एक स्थिति है—
जहाँ मन
अपने ही बनाए दायरों में
चौथे कोने में
खड़ा रो रहा होता है। 
 
जहाँ रिश्ते
‘कभी तुमसे बात करेंगे’
तक सिमट जाते हैं, 
और आवाज़ें
सिर्फ़
‘अब रहने दो’
कहकर थम जाती हैं। 
 
मैं डरता हूँ
इस चौथापन से। 
इसलिए
हर रोज़
कोई न कोई सपना पालता हूँ, 
किसी नई किताब की ख़ुश्बू
या मिट्टी की सौंधी महक में
अपना बचपना तलाशता हूँ। 
 
ताकि
कभी मन
चौथे कोने में न पहुँचे . . . 
और ज़िन्दगी
काग़ज़ की नाव बनकर
अब भी
बारिशों में भीगती रहे। 

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