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अमरबेल

 

वह उगी नहीं थी अपनी जड़ से, 
किसी और की हरी डाल पर
धीरे-धीरे लिपटी थी, 
मृदुल स्पर्शों से—
मानो सहारा दे रही हो! 
 
पर सहारा कहाँ था वह, 
धीरे-धीरे निचोड़ लिया
उसने हरियाली का सार, 
और रह गई
स्वयं हरी—पर परजीवी। 
 
उसे फूल नहीं चाहिए थे, 
न ही फल की आकांक्षा, 
बस पत्तियों की आड़ में
किसी और का जीवन
अपने नाम करना था। 
 
कई रिश्ते अमरबेल हैं, 
जो लिपट जाते हैं
आशाओं पर, सपनों पर, 
और धीरे-धीरे
खोखला कर देते हैं आत्मा को। 
 
क्या तुमने पहचाना है उन्हें? 
जो प्रेम की ओट में
संघर्षों का रस चुराते हैं
और फिर भी
“अपनेपन” का दावा करते हैं। 
 
अमरबेल सुंदर हो सकती है, 
पर वह वृक्ष नहीं बनती—
वह पनपती है किसी और के जीवन से, 
और यही है उसका
एक मौन, लेकिन गहरा अपराध। 

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