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शीशे के पार

 

शहर के सबसे व्यस्त चौक पर, जहाँ गाड़ियों का शोर और लोगों की भीड़ हमेशा किसी मेले-सा दृश्य रचती थी, वहीं अचानक से पुरानी, सँकरी गलियाँ उभर आतीं। उन गलियों से निकलते ही आधुनिक काँच-पत्थर की इमारतें सामने आ खड़ी होतीं, मानो इतिहास और वर्तमान का टकराव वहीं ठहर गया हो। इन्हीं के बीच एक हवेली थी—भव्य, मगर थकी हुई, जैसे वक़्त के बोझ तले उसका दम घुट रहा हो। 

उस हवेली के भीतर, ऊँचे मेहराबों और झूमरों से सजे काँच के एक विशाल कमरे में क़ैद थी आरज़ू। लोग कहते थे, वह कोई आम लड़की नहीं, बल्कि एक ऐसी परी है, जिसकी सुंदरता पर कवि भी शब्द खो बैठते। उसकी गहरी, बोलती हुई आँखें, लहरदार बाल और हल्की-सी मुस्कान किसी भी राहगीर के दिल में हलचल मचा देती। शहर के लोग उसे मज़ाक-मज़ाक में “सबसे नायाब कलाकृति” कहते, और कई तो यह भी मानते कि उसका होना किसी दास्तान का चमत्कार है। 

मगर आरज़ू ख़ुद जानती थी कि उसकी चमक ही उसका कारावास है। वह अक्सर आईने में अपने चेहरे को देखती और सोचती—क्या यही है उसकी असली पहचान? बाहर से वह फूल जैसी लगती थी, लेकिन भीतर से उसकी साँसें उसी तरह थरथराती थीं जैसे काँच की बोतल में बंद तितली। उसका जीवन एक्वेरियम की मछली-सा था—सब उसे देखते, उसकी प्रशंसा करते, लेकिन कोई उसकी तड़प को महसूस नहीं करता। 

उसके पिता, शहर के सबसे धनी व्यापारियों में गिने जाते थे। उनके लिए आरज़ू की सुंदरता किसी क़ीमती गहने की तरह थी, जिसे समाज के सामने गर्व से दिखाया जा सके। बचपन से ही उसे यही सिखाया गया कि उसका असली धन उसकी सूरत है। लेकिन समय के साथ उसने महसूस किया कि यही रूप, यही आकर्षण, उसकी आत्मा को निगल रहा है। वह मुस्कुराती, तो लोग ताली बजाते; वह चुप रहती, तो लोग कहानियाँ गढ़ लेते। मगर कोई यह न जान सका कि उसके दिल में हर रोज़ एक अनजाना शोर गूँजता है—आज़ादी की पुकार का शोर। 

जहाँ भी वह जाती, लोगों की निगाहें उसके पीछे-पीछे चलतीं—जैसे किसी ने उसे इंसान नहीं, बल्कि किसी दुर्लभ नगीने की तरह रख छोड़ा हो। वह चाहे किसी साहित्यिक गोष्ठी में शामिल हो या किसी महफ़िल में, उसकी आँखों से टकराने वाला हर शख़्स उसके विचारों तक पहुँचने से पहले ही उसकी सूरत पर ठहर जाता। आरज़ू चाहती थी कि लोग उससे उसके सपनों, किताबों या उसके मन के डर और उम्मीदों के बारे में बात करें। लेकिन उसकी बातें पूरी होने से पहले ही लोग उसकी मुस्कान गिनने लगते या उसके चेहरे की चमक पर चर्चा करने लगते। 

विडंबना यह थी कि संपन्न वर्ग के वही लोग, जो ख़ुद को प्रगतिशील और बौद्धिक कहते नहीं थकते थे, इस खेल में सबसे आगे थे। वे उसकी संगत को अपने लिए एक स्टेटस सिंबल समझते। जब भी कोई महफ़िल होती, आरज़ू को उसमें बुलाना उनके लिए वैसा ही था जैसे दीवार पर एक नई पेंटिंग टाँग देना। बातचीत के दौरान वे उसकी कलात्मक रुचियों का ज़िक्र करते, उसे ‘संस्कारी’ और ‘संवेदनशील’ कहकर संबोधित करते, लेकिन उनके भीतर की सच्चाई अलग थी। असल में उनके लिए आरज़ू एक इंसान नहीं, बल्कि एक आकर्षक सजावट थी—एक जीवित मूर्ति—जिसे दिखाकर वे अपनी दुनिया में और चमक जोड़ सकते थे। उसकी आत्मा की आवाज़, उसकी भावनाएँ, उसकी बुद्धिमत्ता सब उनके लिए अप्रासंगिक थीं। 

कभी-कभी आरज़ू को लगता, जैसे उसका अस्तित्व दो हिस्सों में बँट गया है—एक बाहर का, जिसे सब सराहते हैं, और एक भीतर का, जिसे कोई देख ही नहीं पाता। और यही भीतर का हिस्सा धीरे-धीरे अकेलेपन के अँधेरे में खोता जा रहा था। आरज़ू का हर रिश्ता उसकी सुंदरता के इर्द-गिर्द ही सीमित होकर रह जाता था। चाहे दोस्ती हो, अपनापन हो या सम्मान—हर बार शुरूआत और अंत उसके चेहरे की चमक पर ही टिक जाते। 

जब एक प्रसिद्ध कलाकार ने उससे आग्रह किया कि वह उसका पोट्रेट बनाना चाहता है, तो पहली बार आरज़ू के मन में एक हल्की-सी उम्मीद जगी। उसने सोचा—शायद यह व्यक्ति उसकी आँखों में छिपे सन्नाटे को, उसके चेहरे की हँसी के पीछे छिपी बेचैनी को पहचान पाएगा। कई दिनों तक वह कलाकार हवेली में आता रहा। वह आरज़ू को देर तक देखता, रेखाएँ खींचता, रंग भरता। हर बार जब उसकी आँखें कैनवस पर जातीं, आरज़ू मन ही मन चाहती कि शायद अब उसकी आत्मा का कोई रंग उभरेगा, शायद उसकी पीड़ा का कोई अक्स उस चित्र में उतर आएगा। लेकिन जब पोट्रेट पूरा हुआ, तो सामने था सिर्फ़ एक मोहक चेहरा—दमकती त्वचा, चमकती आँखें और मुस्कान में छिपी जादूगरी। वहाँ न उसकी बेचैनी थी, न उसके भीतर की तड़प, न ही वह ख़ामोशी जो उसके जीवन का सबसे सच्चा हिस्सा थी। 

कुछ ही दिनों में वह पोट्रेट शहर की सबसे बड़ी नीलामी में लाखों में बिका। लोग बोल उठे—“यह सिर्फ़ तस्वीर नहीं, यह तो कला का चमत्कार है!” तालियाँ बजीं, पैसों का अंबार लगा, और आरज़ू ख़ामोश खड़ी देखती रही। उसी क्षण उसे गहराई से यह एहसास हुआ कि उसकी सुंदरता अब केवल एक चेहरा नहीं, बल्कि एक बिकाऊ वस्तु बन चुकी है—जिसे लोग अपने हित और अपने दिखावे के लिए ख़रीद सकते हैं, सराह सकते हैं, और फिर भुला सकते हैं। 

आरज़ू की आँखों में आँसू तैर आए। उसने सोचा—क्या यही उसकी नियति है? एक पिंजरे में क़ैद परिंदा, जिसे लोग सिर्फ़ उसकी रंगीन पंखों के लिए सराहते हैं, पर उसकी उड़ान की चाहत को कभी नहीं समझते। उम्र की नज़ाकत के साथ, आरज़ू की बेचैनी भी गहरी होती गई। जिस तरह उसके चारों ओर की दुनिया उसे बार-बार सिर्फ़ एक चेहरे तक सीमित कर देती थी, उसी तरह उसके भीतर की आत्मा लगातार उससे सवाल करने लगी थी—क्या यही उसका पूरा जीवन है? 

धीरे-धीरे उसने अपने लिए एक नया रास्ता खोजने की कोशिश की। हवेली के सन्नाटे से बाहर निकलकर उसने किताबों का सहारा लिया। दर्शन, समाजशास्त्र और साहित्य की किताबें उसके कमरे में जगह बनाने लगीं। पन्नों में उसे ऐसे सवाल और जवाब मिले, जो उसकी अपनी बेचैनी से मेल खाते थे। उसने पेंटिंग सीखी, रंगों के माध्यम से अपने मन की उलझनों को व्यक्त करने का प्रयास किया। और फिर एक दिन उसने साहस करके एक चैरिटी संगठन से जुड़ना शुरू किया। वहाँ वह अनाथ बच्चों को पढ़ाती, उनकी हँसी में खोकर अपने भीतर की ख़ाली जगह को भरने की कोशिश करती। 

लेकिन विडंबना यह थी कि जहाँ भी वह जाती, वहाँ भी लोग उसे उसी नज़र से देखते। बच्चे तो उसके साथ सहज रहते, लेकिन बड़े-बुज़ुर्ग, साथी कार्यकर्ता, यहाँ तक कि संगठन के अधिकारी—सब उसके रूप की चर्चा करने से ख़ुद को रोक नहीं पाते। कोई उसकी मुस्कान को ‘प्रेरणा’ कहता, कोई उसकी आँखों की चमक को ‘ईश्वर का वरदान’ बताता। एक दिन संगठन में काम करते हुए एक बुज़ुर्ग महिला ने बड़ी आत्मीयता से उससे कहा—“बेटी, तुम इतनी सुंदर हो, तुम्हें इन सब चीज़ों में पड़ने की क्या ज़रूरत है? तुम्हारी सुंदरता ही तुम्हारा सबसे बड़ा काम है। लोग तुम्हें देखते हैं, मुस्कुराते हैं, बस यही बहुत है।” 

उस वक़्त आरज़ू के दिल में जैसे किसी ने काँटा चुभा दिया। उसने सोचा—क्या इंसान की पहचान सिर्फ़ उसकी सूरत तक ही सीमित है? क्या किताबें पढ़ना, सीखना, दूसरों की मदद करना सब बेकार है, अगर चेहरा चमकदार हो? उस दिन पहली बार आरज़ू ने भीतर से एक अजीब-सा विरोध महसूस किया। उसे लगा जैसे उसके मन के गहरे अँधेरे में कहीं कोई आग जल उठी हो—धीमी, पर स्थायी। 

यह सुनकर आरज़ू का दिल बुरी तरह टूट गया। उसे लगा जैसे उसकी सारी कोशिशें—किताबों का सहारा लेना, रंगों से मन की बेचैनी को उकेरना, समाज के लिए कुछ करना—सब व्यर्थ हो गया हो। मानो उसकी पूरी ज़िंदगी एक ऐसे घेरे में क़ैद हो, जहाँ से बाहर निकलना असंभव है। उसके मन में बार-बार वही तस्वीर उभरती—एक्वेरियम में बंद मछली की। वह मछली पानी के पार झिलमिलाती रोशनी को देखती है, उसके भीतर जीने का एक अलग संसार बनाने की चाहत जगती है, मगर हर बार काँच की कठोर दीवारें उसकी उड़ान की चाहत को रोक देती हैं। लोग उस मछली को निहारते हैं, उसकी सुंदरता की तारीफ़ करते हैं, लेकिन कोई यह नहीं देखता कि उसके भीतर कितनी छटपटाहट, कितनी बेचैनी भरी हुई है। 

आरज़ू को भी अपने जीवन की यही सच्चाई दिखाई देने लगी। बाहर की दुनिया उसे देखकर ताली बजाती, वाह-वाह करती, उसकी चमक पर मोहित होती। लेकिन भीतर की दुनिया—जहाँ उसकी आत्मा साँस लेती थी—वहाँ हर ओर अँधेरा था, घुटन थी, और एक अटूट क़ैद का अहसास था। उसका संघर्ष किसी बाहरी दुश्मन से नहीं था। कोई तलवार, कोई दीवार, कोई पहरेदार उसके सामने खड़ा नहीं था। असल में उसकी सबसे बड़ी लड़ाई उसके अपने ही अस्तित्व से थी। सुंदरता उसके लिए वरदान नहीं, बल्कि एक ऐसी ज़ंजीर बन गई थी, जो हर पल उसे बाँधे रखती थी। 

कभी-कभी आरज़ू देर रात अपने कमरे में बैठकर सोचती—क्या उसका जीवन हमेशा इसी पिंजरे में गुज़र जाएगा? क्या वह कभी अपने चेहरे से परे, अपने असली रूप में पहचानी जा सकेगी? यही सवाल उसके भीतर एक गहरी चुप्पी और साथ ही एक मौन विद्रोह को जन्म देने लगे। 

एक दिन, जब उसकी सुंदरता पर की जा रही लगातार तारीफ़ों से वह पूरी तरह थक चुकी थी, आरज़ू आईने के सामने आ खड़ी हुई। उसने देर तक अपनी ही आँखों में झाँककर देखा। वे आँखें, जिनकी चमक पर लोग मोहित हो जाते थे, अब बुझी हुई थीं—उनमें उदासी का एक सागर था। उसने धीरे से अपने ही प्रतिबिंब से कहा—“मैं सिर्फ़ एक सुंदर चेहरा नहीं हूँ। मैं आरज़ू हूँ . . . मेरी भी एक कहानी है, मेरी भी एक दुनिया है। और मैं चाहती हूँ कि लोग उस दुनिया को जानें, न कि सिर्फ़ मेरे चेहरे की चमक को।” 

उस रात उसने एक कठिन संकल्प लिया। अब वह अपनी पहचान दूसरों की परिभाषाओं से नहीं, बल्कि अपने शब्दों से गढ़ेगी। उसने अपनी आत्मा का बोझ काग़ज़ पर उतारना शुरू किया। हर पन्ने पर उसकी पीड़ा, उसका संघर्ष, और वह घुटन उतरने लगी जो उसने बरसों से अपने भीतर दबा रखी थी। उसने उस एक्वेरियम की उपमा बार-बार दोहराई—वह काँच की दीवारें, जिनके पार रोशनी तो दिखती थी लेकिन छुआ नहीं जा सकता था। धीरे-धीरे यह लेखन उसके लिए साँस लेने जैसा बन गया। क़लम उसकी ज़ंजीरों को काटने का औज़ार बन गई। महीनों की मेहनत के बाद जब उसकी किताब पूरी हुई, तो वह सिर्फ़ एक पुस्तक नहीं थी, बल्कि उसकी आत्मा की पुकार थी। 

जब किताब छपी, तो शुरूआत में लोगों ने वही किया जिसकी आरज़ू को आशंका थी। उन्होंने उसे देखा, मुस्कुराए और कहा—“वाह, एक सुंदर महिला ने किताब लिखी है। ज़रूर इसमें भी उसकी तस्वीर जैसी चमक होगी।” कई ने इसे महज़ एक शौक़ समझा, जैसे सुंदर चेहरा और सुंदर शब्द मिलकर बाज़ार में और सजावट कर रहे हों। लेकिन धीरे-धीरे, जब लोग किताब पढ़ने लगे, तो उन्हें उसमें सिर्फ़ एक महिला का रूप नहीं, बल्कि एक आत्मा की चीख़ सुनाई दी। वहाँ एक ऐसी औरत की आवाज़ थी जो समाज के आइनों में क़ैद होकर जी रही थी, और अब उन आइनों को तोड़ने की हिम्मत जुटा चुकी थी। 

लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। किताब ने जैसे लोगों की आँखों से वह धुँध हटा दी थी, जो बरसों से उन्हें सिर्फ़ आरज़ू का चेहरा दिखाती रही थी। पन्नों पर बिखरे उसके दर्द, उसके सवाल, उसकी बेचैनी और उसका विद्रोह—धीरे-धीरे पाठकों के दिलों तक पहुँचने लगे। लोग पहली बार उसकी सुंदरता से परे जाकर उसके भीतर झाँकने लगे। वे समझने लगे कि वह सिर्फ़ एक ख़ूबसूरत चेहरा नहीं, बल्कि एक संवेदनशील आत्मा है जिसने समाज के पिंजरे में रहकर भी साँस लेने की ज़िद की थी। यह पहली बार था जब आरज़ू को उसकी मुस्कान के लिए नहीं, बल्कि उसके शब्दों के साहस के लिए सराहा गया। 

आरज़ू ने महसूस किया कि उसकी सुंदरता, जिसे वह अब तक अपने लिए एक दुश्मन मानती आई थी, असल में उसकी सबसे बड़ी ताक़त बन गई है। उसी सुंदरता ने लोगों को उसकी ओर खींचा, और फिर उसकी कहानी ने उन्हें रोक लिया। उसकी किताब उसके लिए एक आईना बनी—पर यह आईना किसी चेहरे का नहीं, बल्कि एक आत्मा का था। उसकी आवाज़ एक्वेरियम की कठोर दीवारों को चकनाचूर कर बाहर निकल चुकी थी। अब लोग जब उसकी ओर देखते, तो सिर्फ़ उसकी आँखों की चमक या होंठों की मुस्कान को नहीं याद करते, बल्कि उसके हौसले और संघर्ष की गूँज उनके मन में रह जाती। 

आख़िरकार, बरसों की क़ैद, बरसों का मौन, और बरसों की घुटन के बाद, आरज़ू ने अपनी ही क़ैद से ख़ुद को आज़ाद कर लिया था। अब वह सिर्फ़ “शहर की सबसे सुंदर रचना” नहीं थी—वह एक जीता-जागता उदाहरण थी कि इंसान की असली पहचान उसकी आत्मा और उसके साहस से होती है, न कि उसकी सतही चमक से। 

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