प्रभाती
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 May 2025 (अंक: 276, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
पूरब की लाली
धीरे-धीरे खेतों पर उतरती है,
ओस की बूँदें
धरती की पलकों पर
जगमगाने लगती हैं।
कुएँ की चरखी
पहली बार घूमती है,
और माँ
बाल्टी में भर लाती है
सुबह की शान्ति।
पीपल पर बैठी चिड़ियाँ
गाँव को जगाती हैं,
जबकि दादा
अँगोछा सँभालते हुए
दिन का हिसाब सोचने लगते हैं।
भोर की हवा
गाय की साँसों से होकर
खलिहान तक जाती है—
जैसे प्रभाती
गाँव की रगों में
फिर से जीवन का राग भर रही हो।
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