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प्रतिबिंब

 

गाँव के प्राचीन पीपल की घनी छाया तले, जहाँ कभी उनकी वाणी से विद्या के दीप प्रज्वलित होते थे, वहीं आज मास्टर शिवप्रसाद जीवन की संध्या बेला में एक शांत, संतुलित और सजग अस्तित्व के रूप में बैठे दिखाई देते हैं। 

उनका कुर्ता भले ही समय की मार से पुराना हो गया हो, पर उनके विचार आज भी समय से बहुत आगे की बात करते हैं— जैसे अनुभव की राख में भविष्य की चिनगारियाँ छिपी हों। 

उनका जीवन किसी घोषणापत्र की तरह नहीं, एक मौन संवाद की भाँति था—जहाँ हर कर्म में दर्शन की छाया, और हर शब्द में संवेदना की गूँज होती थी। 

एक दिन पंचायत भवन में एक सार्वजनिक सभा बुलाई गई, जहाँ गाँव के अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे। मंच पर हरिनाथ, हाल ही में सम्पन्नता के सोपानों पर चढ़ा नवधनाढ्य, जब बोलने उठा, तो उसकी दृष्टि मास्टर जी पर जा टिकी। 

अपनी सजी-धजी वाणी में उसने व्यंग्य फेंका, “अरे मास्टर! अब भी वही घिसा हुआ कुर्ता और टूटी चप्पलें? आदमी कुछ बनता है तो पहनावे से पता चलना चाहिए, तुम्हारे जैसे लोग कभी ऊँचाई नहीं छू सकते!”

क्षण भर को सन्नाटा गूँजने लगा। वह न केवल शब्दों का, बल्कि संस्कारों का भी सन्नाटा था। 

मास्टर शिवप्रसाद ने अपना चश्मा उतारकर शांत स्वर में कहा, “हरिनाथ जी, जब मैं आपको प्रणाम करता हूँ, तो वह आपकी धन-संपदा को नहीं, अपितु मेरे संस्कारों को अभिव्यक्ति देता है। सम्मान देना मेरा धर्म है—कौन उसका अधिकारी है, यह विषय मेरे लिए गौण है।”

उन्होंने अपनी धीमी, किन्तु स्थिर वाणी में जोड़ा, “सम्मान देना मेरे चरित्र का प्रतिबिंब है, आपके चरित्र का नहीं। यदि मैं तुच्छता के बदले तुच्छता ही लौटाऊँ, तो मेरा शिक्षण व्यर्थ हुआ।”

मंच पर स्तब्धता छा गई। हरिनाथ जैसे किसी अदृश्य आईने में अपना चेहरा देखने को विवश हो गया हो। उसका सारा आडंबर, सारी ऊँची आवाज़ भीतर से खोखली हो गई। 

वह नज़रें झुकाकर चुपचाप बैठ गया। सभा में मौन श्रद्धा की लहर दौड़ गई। कोई तालियाँ नहीं बजीं, पर एक गूढ़ शिक्षा सबके अंतर्मन में दर्ज हो चुकी थी। 

मास्टर जी ने अपनी छड़ी उठाई, और उसी मंद मुस्कान के साथ चल पड़े—जैसे कुछ हुआ ही न हो। 

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