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छाया और सत्य

 

संध्या ढल रही थी। वृक्षों की लम्बी छायाएँ ज़मीन पर लेटी थीं, मानो दिन भर की दौड़-धूप के बाद विश्राम ले रही हों। उसी क्षण, एक बालक ने अपने दादाजी से पूछा, “दादाजी, यह छाया क्यों हर पल बदलती रहती है?” 

दादाजी मुस्कराए। उन्होंने बालक को पास बैठाया और बोले, “बेटा, छाया सत्य नहीं होती, केवल उसका संकेत होती है। वह सूर्य के अनुसार खिसकती है, मिट जाती है। लेकिन जो उसे बनाता है—वह वस्तु, वह सत्य है।”

बालक कुछ समझा, कुछ नहीं। उसने फिर पूछा, “तो क्या लोग भी छाया जैसे हैं?” 

दादाजी की आँखें दूर कहीं क्षितिज में टिक गईं। वे धीमे स्वर में बोले, “लोगों के विचार, व्यवहार, और इच्छाएँ—सब छायाएँ हैं। वे समय, समाज और स्वार्थ के सूर्य के अनुसार बदलते रहते हैं। लेकिन आत्मा . . . आत्मा वह ‘वस्तु’ है जो छाया डालती है—वही सत्य है।”

बालक ने एक लंबी साँस ली और बोला, “तो हमें छाया नहीं, आत्मा को पहचानना चाहिए?” 

दादाजी के होंठों पर गूढ़ मुस्कान उभरी। 

“हाँ बेटे,” उन्होंने कहा, “छायाएँ भ्रम पैदा करती हैं, सत्य नहीं बतातीं। जीवन में जो स्थिर है, शांत है और अपने भीतर टिका है—वही आत्मा है, वही सत्य है। बाक़ी सब बदलता रहेगा—जैसे यह शाम, जैसे यह छाया।”

अगले क्षण दोनों मौन हो गए—छाया की ओर नहीं, आत्मा की ओर देखते हुए। 

दार्शनिक निहितार्थ—

यह लघुकथा हमें जीवन की उस सच्चाई से परिचित कराती है, जो अक्सर हमारी दृष्टि से ओझल रह जाती है। 
छाया, जो हमें दिखती है—जैसे कि समाज में हमारी पहचान, हमारे विचार, व्यवहार, इच्छाएँ—ये सब अस्थायी और बदलने वाली चीज़ें हैं। 

लेकिन इन सबके मूल में जो “स्व” है, जिसे हम आत्मा कहते हैं—वह शाश्वत है, अडोल है, और वास्तविक पहचान का स्रोत है। 

जीवन में अक्सर हम छायाओं के पीछे भागते हैं—नाम, यश, प्रतिष्ठा, दूसरों की राय—पर ये सब केवल समय के अनुसार बदलते दृश्य हैं। 

जो नहीं बदलता, वह भीतर है। 

स्वयं की खोज, आत्मा की पहचान—यही मनुष्य का असली उद्देश्य है। 

यह कथा हमें यही स्मरण कराती है कि

सत्य को बाहर नहीं, भीतर खोजना होगा। 

छाया को नहीं, उस ‘प्रकाश’ को समझना होगा, जिससे वह छाया बनती है। 

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