छाया और सत्य
कथा साहित्य | लघुकथा अमरेश सिंह भदौरिया1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
संध्या ढल रही थी। वृक्षों की लम्बी छायाएँ ज़मीन पर लेटी थीं, मानो दिन भर की दौड़-धूप के बाद विश्राम ले रही हों। उसी क्षण, एक बालक ने अपने दादाजी से पूछा, “दादाजी, यह छाया क्यों हर पल बदलती रहती है?”
दादाजी मुस्कराए। उन्होंने बालक को पास बैठाया और बोले, “बेटा, छाया सत्य नहीं होती, केवल उसका संकेत होती है। वह सूर्य के अनुसार खिसकती है, मिट जाती है। लेकिन जो उसे बनाता है—वह वस्तु, वह सत्य है।”
बालक कुछ समझा, कुछ नहीं। उसने फिर पूछा, “तो क्या लोग भी छाया जैसे हैं?”
दादाजी की आँखें दूर कहीं क्षितिज में टिक गईं। वे धीमे स्वर में बोले, “लोगों के विचार, व्यवहार, और इच्छाएँ—सब छायाएँ हैं। वे समय, समाज और स्वार्थ के सूर्य के अनुसार बदलते रहते हैं। लेकिन आत्मा . . . आत्मा वह ‘वस्तु’ है जो छाया डालती है—वही सत्य है।”
बालक ने एक लंबी साँस ली और बोला, “तो हमें छाया नहीं, आत्मा को पहचानना चाहिए?”
दादाजी के होंठों पर गूढ़ मुस्कान उभरी।
“हाँ बेटे,” उन्होंने कहा, “छायाएँ भ्रम पैदा करती हैं, सत्य नहीं बतातीं। जीवन में जो स्थिर है, शांत है और अपने भीतर टिका है—वही आत्मा है, वही सत्य है। बाक़ी सब बदलता रहेगा—जैसे यह शाम, जैसे यह छाया।”
अगले क्षण दोनों मौन हो गए—छाया की ओर नहीं, आत्मा की ओर देखते हुए।
दार्शनिक निहितार्थ—
यह लघुकथा हमें जीवन की उस सच्चाई से परिचित कराती है, जो अक्सर हमारी दृष्टि से ओझल रह जाती है।
छाया, जो हमें दिखती है—जैसे कि समाज में हमारी पहचान, हमारे विचार, व्यवहार, इच्छाएँ—ये सब अस्थायी और बदलने वाली चीज़ें हैं।
लेकिन इन सबके मूल में जो “स्व” है, जिसे हम आत्मा कहते हैं—वह शाश्वत है, अडोल है, और वास्तविक पहचान का स्रोत है।
जीवन में अक्सर हम छायाओं के पीछे भागते हैं—नाम, यश, प्रतिष्ठा, दूसरों की राय—पर ये सब केवल समय के अनुसार बदलते दृश्य हैं।
जो नहीं बदलता, वह भीतर है।
स्वयं की खोज, आत्मा की पहचान—यही मनुष्य का असली उद्देश्य है।
यह कथा हमें यही स्मरण कराती है कि
सत्य को बाहर नहीं, भीतर खोजना होगा।
छाया को नहीं, उस ‘प्रकाश’ को समझना होगा, जिससे वह छाया बनती है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अधनंगे चरवाहे
- अनाविर्भूत
- अवसरवादी
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आँगन
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- उपग्रह
- कछुआ धर्म
- कमरबंद
- कुरुक्षेत्र
- कैक्टस
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- गिरगिट
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चूड़ियाँ
- चैत दुपहरी
- चौथापन
- जब नियति परीक्षा लेती है
- ज्वालामुखी
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- दृष्टिकोण जीवन का अंतिम पाठ
- देह का भूगोल
- देहरी
- दो जून की रोटी
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- नयी पीढ़ी
- नेपथ्य में
- पगडंडी पर कबीर
- परिधि और त्रिभुज
- पहली क्रांति
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- फुहार
- बंजर ज़मीन
- बंजारा
- बुनियाद
- भगीरथ संकल्प
- भाग्य रेखा
- भावनाओं का बंजरपन
- भुइयाँ भवानी
- मन मरुस्थल
- मनीप्लांट
- महावर
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- रहट
- रातरानी
- लेबर चौराहा
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- शान्तिदूत
- सँकरी गली
- सती अनसूया
- सरिता
- सावन में सूनी साँझ
- हल चलाता बुद्ध
- ज़ख़्म जब राग बनते हैं
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक आलेख
- कृष्ण का लोकरंजक रूप
- चैत्र नवरात्रि: आत्मशक्ति की साधना और अस्तित्व का नवजागरण
- जगन्नाथ रथ यात्रा: आस्था, एकता और अध्यात्म का महापर्व
- बलराम जयंती परंपरा के हल और आस्था के बीज
- बुद्ध पूर्णिमा: शून्य और करुणा का संगम
- योगेश्वर श्रीकृष्ण अवतरणाष्टमी
- रामनवमी: मर्यादा, धर्म और आत्मबोध का पर्व
- लोक आस्था का पर्व: वट सावित्री पूजन
- विश्व योग दिवस: शरीर, मन और आत्मा का उत्सव
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
ऐतिहासिक
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
ललित निबन्ध
चिन्तन
शोध निबन्ध
कहानी
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं