अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं भला नहीं

साँचे में तुम्हारे ढला नहीं।
बस इसिलए मैं भला नहीं॥
1.
वामन जैसा शीश पर,
अपने अगर मैं पाप लेता।
दो डगों में ये तुम्हारी,
सृष्टि पूरी नाप लेता॥
कागवंशी प्रशस्तियों को,
मैं कभी भी पढ़ न पाया।
प्रगति के सोपान शायद,
इसलिए मैं चढ़ न पाया॥
यायावरी रही हिस्से में,
शिखर कहीं भी मिला नहीं॥
2.
नेपथ्य में रहकर सदा,
सम्भावना सा द्वार देखा।
इंद्रधनुषी कल्पनाओं से,
सजा संसार देखा॥
एक भी कन्धा मिला न,
शीश जिस पर मैं टिकाता।
अन्तःकरण का दर्द सारा,
आँसुओं संग मैं बहाता॥
इससे ज़्यादा क्या कहूँ,
मैं आदमी हूँ पुतला नहीं॥
3.
मित्रता जब प्रीति बनकर,
राजसत्ता द्वार रोई।
स्वाभिमानी दम्भ टूटा,
नियति ने पलकें भिगोई॥
ख़ामोशी है इस क़दर,
कि ओंठ तक हिलते नहीं।
अफ़सोस है कि आज,
केशव दीन से मिलते नहीं॥
वास्तविकता है यही और,
कहते हो कुछ बदला नहीं॥
4.
वट-वृक्ष हो तुमको मुबारक,
अपनी तो नीम ही भली।
फल भले कड़वे हो इसके,
पर छाँह मिलती शीतली॥
उपलब्धियों की चर्चा तुम्हारी,
मैंने बहुत देखी सुनी।
क़दम जब अपना बढ़ाया,
राह ख़ुद अपनी चुनी॥
बनी बनाई पगडण्डी पर,
मैं कभी-भी चला नहीं॥
5.
सफलता असफलता यहाँ,
सब क़िस्मत का खेल है।
धूप और छाँव का ये,
अजब ताल-मेल है॥
ब्रह्मऋषि बनने का,
मन में विश्वास है।
कौशिक जैसा हौसला,
अपने भी पास है॥
देवलोकी अप्सरा ने "अमरेश",
जाने क्यों छला नहीं॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

लघुकथा

कहानी

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं