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बुनियाद

 

इमारतें सिर उठाती हैं, 
मीनारें आसमान से बातें करती हैं, 
झरोखे गीत गुनगुनाते हैं, 
और दीवारें क़िस्से कहती हैं। 
 
पर . . . 
इन सबके नीचे
कहीं गुमनाम
धड़कती रहती है—
एक बुनियाद। 
 
जो दिखती नहीं, 
पर होती है। 
जो बोलती नहीं, 
पर हर आँधी से
लड़ती है। 
 
संबंधों की भी
कुछ बुनियादें होती हैं। 
मौन में पिघलती, 
समर्पण में जीती, 
त्याग में सजीव होतीं। 
 
हम अक्सर
दीवारों को रँगते हैं, 
छतों को ऊँचा करते हैं, 
साज-सज्जा में लगे रहते हैं, 
पर भूल जाते हैं
उस अदृश्य बुनियाद को
जो सब कुछ थामे हुए है। 
 
समय की आँधियाँ
जब रिश्तों की दीवारों को
डगमगाती हैं, 
तब याद आती है
वही बुनियाद। 
 
जीवन में
कभी-कभी लौटना चाहिए
उसी मिट्टी तक
जहाँ खड़े हुए थे हम। 
 
क्योंकि—
बिना बुनियाद के
किसी भी इमारत का
कोई अर्थ नहीं होता। 

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