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स्पर्शहीन प्रेम

 

वर्षों बाद राघव आश्रम लौटा था। बाल सफ़ेद हो चुके थे, पर नेत्रों में अब भी वही ज्वाला थी—जिज्ञासा की, जानने की, समझने की। 

आश्रम की छाया में एक युवती तुलसी के पौधे को पानी दे रही थी। राघव ने ध्यान से देखा—चेहरा जाना-पहचाना था। 

“संयोगिनी?” उसने पूछा। 

युवती मुस्कुराई। 

“हाँ, पर अब सबके लिए—माता अनुया।”

राघव कुछ क्षण मौन रहा। फिर बोला, “तुम्हें याद है न वह क्षण जब मैं तुमसे प्रेम करता था?” 

अनुया ने धीरे से सिर झुकाया, “हाँ, और वह भी जब तुमने कहा था—मैं प्रेम को बाँधना नहीं चाहता . . . उसे जीना चाहता हूँ।”

राघव की आँखों में चमक आ गई। 

अनुया आगे बोली, “और मैं तब नहीं समझ पाई थी। मुझे लगा था, तुम डर रहे हो . . . लेकिन अब समझती हू—प्रेम का शिखर मिलन नहीं, समर्पण है। प्रेम, वह पुष्प है जो खिले बिना भी सुगंध दे सकता है।”

दोनों मौन हो गए। 

हवा से तुलसी की पत्तियाँ काँपीं, मानो किसी सूक्ष्म संवाद की साक्षी बनी हों। 

कुछ देर बाद राघव बोला, “मैं आज भी तुम्हें प्रेम करता हूँ।”

अनुया ने उसकी आँखों में झाँका, मुस्कुराई और कहा, “अब मैं भी करती हूँ। मगर अब वह प्रेम ईश्वर की तरह है—न स्पर्श करता है, न छोड़ता है।”
 
दार्शनिक निहितार्थ—


 
सच्चा प्रेम बाँधता नहीं, मुक्त करता है। 
जिस प्रेम में स्वार्थ, 
मालिकाना हक़, या मिलन की व्याकुलता हो— 
वह प्रेम नहीं, आग्रह होता है। 
 
आध्यात्मिक प्रेम वह है, 
जो बिना अधिकार के भी अपना होता है, 
जो बिना छूए भी 
भीतर सबसे अधिक उपस्थित रहता है। 
 
जब प्रेम ईश्वर की तरह 
निःस्वार्थ, निराकार और निर्व्याज हो जाता है, 
तब वह जीवन का नहीं, 
आत्मा का हिस्सा बन जाता है।  

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