धोबी घाट
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Jun 2025 (अंक: 278, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
भोर की उजास
जब तिरती है नदी पर,
धोबी घाट
करता है दिन का पहला वंदन।
कंधों पर कपड़ों की गठरी,
मन में बीते कल की थकन—
फिर भी हर थपकी में
उम्मीद की गूँज होती है।
पत्थरों पर बजते कपड़े
जैसे बजती हो
किसी अदृश्य साज़ की तान,
जहाँ जीवन
कड़ी धूप में भी
अपना संगीत रचता है।
बहती नदी
केवल जल नहीं बहाती—
वह धोती है
अंतर की चुप्पियाँ,
और हर छींटदार चादर में
जैसे कोई सपना
सूखता है धीरे-धीरे।
बच्चों की खिलखिलाहट,
नहाते लड़कों की हँसी,
और दूर से आती
घंटी की टुनकार—
यह सब मिलकर
धोबी घाट को
एक जीवंत गीत बनाते हैं।
यह घाट—
जहाँ कपड़े ही नहीं,
मन भी उजले होते हैं,
और पानी की धार में
एक पूरी सभ्यता
हर दिन फिर से
निखरती है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अधनंगे चरवाहे
- अनाविर्भूत
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- कुरुक्षेत्र
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चैत दुपहरी
- जब नियति परीक्षा लेती है
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- देह का भूगोल
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- पहली क्रांति
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- बंजर ज़मीन
- भगीरथ संकल्प
- भावनाओं का बंजरपन
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- लेबर चौराहा
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- सँकरी गली
- सती अनसूया
- सरिता
सांस्कृतिक आलेख
ललित निबन्ध
चिन्तन
सामाजिक आलेख
शोध निबन्ध
कहानी
ललित कला
साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं