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विजयदशमी—राम और रावण का द्वंद्व, भारतीय संस्कृति का संवाद

 

भारतीय पर्व-परंपरा केवल आस्था और अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। यह हमारे सामूहिक इतिहास, लोक-स्मृति और सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिंब है। विजयदशमी इसका जीवंत उदाहरण है। हम इसे हर वर्ष असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाते हैं। किन्तु यदि इस पर्व के दार्शनिक और सांस्कृतिक आयामों को गहराई से देखें, तो यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि दो दृष्टियों, दो संस्कृतियों और दो मूल्यों का संवाद भी है। 

उत्तर भारत की परंपरा ने राम को अपना प्रतीक माना। राम यहाँ केवल देवता नहीं, बल्कि “मर्यादा पुरुषोत्तम” हैं—वह आदर्श मानव जो जीवन को धर्म, संयम और त्याग से ऊँचाई देता है। अयोध्या से लेकर काशी और मिथिला से लेकर प्रयाग तक, लोककथाएँ और लोकगीत राम को इस रूप में ही गाती हैं। विजयदशमी पर जब रावण का पुतला दहन किया जाता है, तो यह असत्य पर सत्य की विजय से कहीं अधिक है—यह उस आदर्श का उत्सव है जिसमें मनुष्य अपनी सीमाओं को पहचानकर जीवन को संतुलित करता है। 

राम उत्तर भारतीय मानस के उस पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मानवीय संबंधों में अनुशासन और आचार की प्राथमिकता को सर्वोच्च मानता है। वे पिता के वचन की रक्षा के लिए राजपाट त्याग देते हैं, भाई के प्रति प्रेम के लिए वनगमन स्वीकार करते हैं और प्रजा के लिए निजी सुख का परित्याग करते हैं। इसीलिए राम उत्तर भारत की संस्कृति में “धर्म का जीवंत प्रतिरूप” माने जाते हैं। 

इसके विपरीत, दक्षिण भारत ने रावण को अपने प्रतीक रूप में देखा। रावण मात्र खलनायक नहीं था। वह अद्वितीय विद्वान, दशानन, महाबली सम्राट और शिवभक्त था। लंका की समृद्ध सभ्यता, सुवर्णमयी नगरी, उसकी भव्यता और वैभव दक्षिण की सांस्कृतिक स्मृतियों को गौरवान्वित करती हैं। 

तमिल साहित्य में और कुछ दक्षिण भारतीय परंपराओं में रावण को विद्वता और सामर्थ्य के प्रतीक के रूप में स्मरण किया जाता है। वहाँ यह प्रश्न भी उठता है कि क्या रावण की पराजय केवल अधर्म की पराजय थी, या यह उत्तर और दक्षिण की दो दृष्टियों का संघर्ष भी था। इसीलिए दक्षिण के कुछ अंचलों में रावण का पूजन भी किया जाता है। यह दर्शाता है कि भारतीय संस्कृति एकरूप नहीं, बल्कि बहुरूपी और बहुवर्णी है। 

यहाँ मूल प्रश्न उठता है कि क्या विजयदशमी केवल एक संस्कृति की विजय और दूसरी की हार है? यदि हम भारतीयता की व्यापकता में देखें, तो उत्तर स्पष्ट है—यह एकतरफ़ा विजय नहीं, बल्कि एक संवाद है। 

राम और रावण दोनों ही भारतीय मानस के आवश्यक पक्ष हैं। एक मर्यादा और संयम का प्रतीक है, तो दूसरा सामर्थ्य और वैभव का। यदि राम हमें अनुशासन और धर्म की शिक्षा देते हैं, तो रावण हमें विद्या, शक्ति और आत्मगौरव का महत्त्व याद दिलाते हैं। भारतीय संस्कृति का वास्तविक स्वरूप इन दोनों के संतुलन में ही निहित है। 

विजयदशमी का पर्व केवल बाहरी युद्ध की कथा नहीं कहता। यह प्रत्येक मनुष्य के भीतर घटित होने वाले संघर्ष का भी प्रतीक है। हर व्यक्ति के भीतर एक राम है—जो अनुशासन और संयम का आग्रह करता है—और एक रावण है—जो सामर्थ्य और वासनाओं के मद में डूब जाता है। 

जब रावण का पुतला जलता है, तो वास्तव में हम अपने भीतर के अहंकार, क्रोध और वासनाओं को जलाने का संकल्प लेते हैं। इस दृष्टि से विजयदशमी बाहरी युद्ध की स्मृति नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि की साधना है। 

आज के समय में विजयदशमी का संदेश और भी प्रासंगिक हो उठता है। समाज में बढ़ती असहिष्णुता, शक्ति के दुरुपयोग और सांस्कृतिक विभाजन की प्रवृत्ति हमें उसी रावण की याद दिलाती है जो अपने सामर्थ्य के अहंकार में अंधा हो गया था। 

लेकिन क्या समाधान केवल रावण-दहन है? क्या हमें दक्षिण की उस स्मृति को भी नहीं समझना चाहिए, जिसमें रावण विद्वान और शिवभक्त के रूप में जीवित है? यदि हम केवल एक पक्ष को ही मान्यता देंगे, तो भारतीय संस्कृति की बहुलता और समावेशी स्वरूप खो जाएगा। 

आज आवश्यकता है कि हम राम की मर्यादा को आत्मसात करें और रावण की विद्या तथा सामर्थ्य को भी सकारात्मक दिशा दें। राम के बिना समाज अनुशासनहीन हो जाएगा और रावण के बिना ज्ञान और शक्ति की परंपरा अधूरी। 

भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य है—समन्वय। यहाँ विरोध भी अंततः संवाद में बदल जाता है। विजयदशमी का वास्तविक संदेश यही है कि संघर्ष का उद्देश्य किसी संस्कृति को मिटाना नहीं, बल्कि उसे संतुलन और समन्वय की ओर ले जाना है। 

राम और रावण, उत्तर और दक्षिण, मर्यादा और सामर्थ्य—ये सब मिलकर ही भारत की संपूर्णता का निर्माण करते हैं। विजयदशमी हमें याद दिलाती है कि हमारी एकता किसी एक रंग से नहीं, बल्कि अनेक रंगों के संगम से बनी है। 

इसलिए विजयदशमी का पर्व केवल असत्य पर सत्य की विजय का स्मरण नहीं है। यह हमें यह सोचने के लिए भी प्रेरित करता है कि संस्कृति का वास्तविक उद्देश्य किसी को पराजित करना नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलना है। 

राम और रावण दोनों हमारी धरोहर हैं—एक हमें अनुशासन का मार्ग दिखाता है और दूसरा हमें शक्ति और विद्या का महत्त्व समझाता है। यदि हम इन दोनों का संतुलन साध लें, तो भारतीय संस्कृति और अधिक पूर्ण, समृद्ध और जीवंत हो सकती है। 

विजयदशमी का यही विशिष्ट संदेश है—

“संघर्ष से संवाद और विभाजन से समन्वय ही भारतीयता का वास्तविक पथ है।” 

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