उपग्रह
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
वात्सल्य की तरलता,
ज़िम्मेदारियों का घर्षण,
दायित्वों का भार,
कर्त्तव्यों का नाभिकीय विखंडन।
अंतर्संबंधों का आवेग,
इच्छाओं की अंतहीन पिपासा,
भावनाओं की प्रबलता,
प्रणय का आवेश,
कामनाओं की निर्बाधता।
अनुबंध का गुरुत्वाकर्षण
जब टूटता है,
तो निजता का बोध
धुँधली पृथ्वी की ओर
एक उपग्रह-सा ताकता है।
कभी-कभी
सोचता हूँ—
कहीं मैं भी तो नहीं
अपनी कक्षा से भटका
कोई उपग्रह!
जो रिश्तों के गुरुत्व से छिटक कर
स्वत्व की तलाश में
शून्य अंतरिक्ष में भटकता
अनाम गति का यात्री।
जहाँ न कोई आकर्षण है,
न वर्जना।
बस—
स्मृतियों की परिक्रमा करता
एक अनदेखा चक्र।
धरती हर उपग्रह को
हमेशा नहीं लौटाती,
कुछ . . .
अज्ञात अंतरिक्ष में खो जाते हैं
और वहाँ भी
अपनी गुरुत्वहीन स्मृतियों के साथ
घूमते रहते हैं . . . अनंत काल तक।
और मैं,
इन्हीं उलझे, अकथ पथों पर
अक्सर टटोलता हूँ
अपनी पृथ्वी,
अपनी कक्षा,
अपना गुरुत्व।
कि कभी तो कोई सम्बन्ध
अपनी परिधि का विस्तार करेगा
और मुझे फिर से
अपने गुरुत्व में समेट लेगा।
पर फ़िलहाल . . .
मैं उपग्रह हूँ।
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