अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अहिल्या का प्रतिवाद

 

जब धर्म की कसौटी पर न्याय मौन रहा—
मैं वहीं से बोलती हूँ। 
 
मैं
न तो शिला हूँ, 
न अग्नि की ज्वालाओं में शुद्धि खोजती कोई सत्ता। 
मैं वह मौन हूँ
जो युगों से भाषा बनने की प्रतीक्षा में है। 
 
अहिल्या—
नाम भर नहीं, 
एक प्रतीक हूँ उस निर्णयहीन नारी का
जिसे पुरुष-नीति ने
अधिकारहीन बना
धर्म की चौखट पर रख दिया। 
 
क्या मेरा अपराध
केवल इतना था
कि मैंने छल को पहचान न सकी? 
या फिर यह कि
मैं स्त्री थी—
मौन और सहनशील होने के लिए रची गई? 
 
गौतम की क्रोधाग्नि
और राम के चरण-स्पर्श के बीच
जो युग बीते, 
मैं हर युग में उस स्त्री की छाया बनी, 
जिसे पुरुषों ने पूजने से पहले तोड़ा, 
और मोक्ष कह कर मौन सौंप दिया। 
 
मैं पूछती हूँ—
क्या सतीत्व वह है
जो युग-युगांतर से
स्त्री को सिद्ध करना पड़ता है
पुरुष के संदेह की अग्नि में? 
 
नहीं। 
अब मैं वह स्त्री हूँ
जो अपने अंतर में अग्नि भी है
और शान्ति भी। 
मैं स्वयं प्रश्न हूँ, 
स्वयं उत्तर भी। 
 
मेरा सतीत्व
अब किसी ऋषि की स्वीकृति का मोह नहीं रखता, 
न किसी अवतार की कृपा का आकांक्षी है। 
यह मेरी जाग्रत चेतना है, 
जो मिथकों के भीतर से
अपने लिए एक नवशास्त्र रच रही है। 
 
अहिल्या अब पत्थर नहीं—
वह चेतना है, 
जो प्रतीक नहीं बनती, 
प्रश्न बनती है। 
वह वह मौन है, 
जिसमें शब्द जन्म लेते हैं—
और वह प्रतिरोध, 
जो करुणा से नहीं, 
विवेक से उपजता है। 
जो सत्य के लिए
अब किसी अवतार की प्रतीक्षा नहीं करती—
बल्कि स्वयं इतिहास को रचती है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सांस्कृतिक आलेख

ऐतिहासिक

साहित्यिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

ललित निबन्ध

चिन्तन

सामाजिक आलेख

शोध निबन्ध

कहानी

ललित कला

पुस्तक समीक्षा

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं