बे-चेहरा औरतें
आलेख | सामाजिक आलेख शैली1 Feb 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
आज डॉक्टर के पास अपनी रिपोर्ट्स दिखाने गई थी। मेरा नंबर थोड़ी देर बाद आना था तो चुपचाप प्रतीक्षा कर रही थी। इयर-फ़ोन नहीं ले गयी थी तो मोबाइल को बन्द कर के नियमों का पालन कर रही थी। यूँ कुछ लोग बेशर्मी से स्पीकर पर आराम से कुछ विडियो और समाचार देख रहे थे, जो मुझे और बाक़ियों को डिस्टर्ब कर रहे थे, पर मेरी मान्यताएँ मुझे उन-सा बनने से रोक रही थीं। ऐसे में मेरा प्रिय काम है लोगों को ध्यान से देखना और शरलॉक होम्स की तरह उनके बारे में गहराई से सोचना। कोरोना काल के कारण मैं सबसे आगे की पंक्ति में, काफ़ी अलग बैठी थी, इसलिए केवल उन्हें ही देख सकती थी जो डॉक्टर के कमरे में जा रहे थे।
डॉक्टर के पास जाने से पहले सभी को अपना वज़न लेना होता था, जिसे डॉक्टर, दवा की ख़ुराक तय करने के लिए, ज़रूरी मानते हैं। मेरे सामने एक दंपती खड़े थे, उनमें पत्नी मरीज़ थीं, क्योंकि नर्स उनको ही वज़न लेने के लिए कह रही थी। मेरा ध्यान भी उस महिला की ओर गया जो दीवार का सहारा ले कर चप्पल उतार कर वेइंग मशीन पर चढ़ने का यत्न कर रही थीं (जितनी मेहनत में शायद एवरेस्ट पर चढ़ा जा सकता है)। मैं उनका वज़न तो नहीं देख पायी, पर अंदाज़ा लगाया कि उस लहीम-शहीम काया का वज़न 75/85 किलो के बीच कुछ होगा। लंबाई कोई 5.01 या 5.02 इंच की होगी। इस लंबाई पर इतना वज़न रखने में ख़ासी मशक़्क़त की गयी होगी। साँवला रंग, सामन्य से कम नाक-नक्श, क़स्बाई व्यक्तित्व। बालों को कुछ प्रयत्न करके चोटी और जूड़े के बीच बने किसी अज्ञात 'श्टाइल' में बाँध लिया गया था। उसमें एक मोतियों वाली बैक-पिन भी लगी थी, जो मुझे विश्वास है कि उनकी पोती या बहू की रही होगी, क्योंकि ये उनके पूरे पहनावे के साथ एकदम मेल नहीं खा रही थी। वर्तमान फ़ैशन के ताल में ताल मिलाता हैन्ड निटेड, घुटनों तक पहुँचता, बेमेल कार्डिगन साड़ी के ऊपर सजा था। उसके ऊपर पीले रंग का कत्थई छींट का मोटा शॉल भी था जिससे सिर, कान सभी को ढँका गया था, (ऐसा लगता था मानो बाहर की बर्फ़बारी से बच कर यहाँ तक पहुँची हैं), गुलाबी छप्पेदार साड़ी पर सारा सरंजाम कुछ विचित्र सा था। पर ऐसी वेशभूषा में, इस तरह के व्यक्तित्व वाली, महिलाओं की कमी नहीं है, पूरब में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के अलावा पटना, कटक, दिल्ली, चंडीगढ़, अहमदाबाद, गुड़गांव, पूना यहाँ तक मुंबई में भी इस प्रजाति को देखा और पाया जा सकता है। ऐसी महिलाएँ भारतीय महिलाओं का लगभग 40 प्रतिशत तो है ही, ऐसा मेरी यायावरी प्रवृत्ति मुझे बताती है (गूगल पर ऐसे आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, तो आपको विश्वास करना पड़ेगा)।
गाँव में यह बहुसंख्यक हैं, शहरों में अपेक्षाकृत कम। इन्हें क़स्बाई न कह कर सब-अर्बन कहना ज़्यादा उचित होगा। यदि आप वास्तव में भारत में रहते हैं और आपका ऑब्ज़रवेशन अच्छा है तो आपने, अपने आसपास इन्हें ज़रूर देखा होगा। यह बिना पहचान, बिना चेहरे के व्यक्तित्व हैं।
इनके साथ एक दुबला-पतला-सा पति भी था, जो मात्र 58 किलो का था, नहीं मेरे में किसी को देख कर उसका वज़न जानने की कोई क्षमता नहीं है। इसका पता मुझे इसलिए लगा कि पत्नी के बाद स्वयं पति ने नर्स से उसके वज़न को देखने लिए कहा था। नर्स के बोलने से मुझे जानकारी मिली थी। जिसके हाथ में मोटी फ़ाइल थी जिसमें मानी हुई बात है, डॉक्टर की पर्चियाँ और पैथोलॉजी रिपोर्ट रही होंगी। यूँ डॉक्टर सिर्फ़ मरीज़ को ही अंदर बुलाते हैं (कोरोना के कारण), पर यहाँ पति को जाने की इज़ाज़त मिली। क्योंकि महिला शायद स्वयं अपनी रिपोर्ट या दवा को समझ सकने में समर्थ नहीं होगी।
मेरा उद्देश्य यहाँ किसी का मख़ौल उड़ाने का नहीं है, बल्कि मैं उस वर्ग की बात करना चाहती हूँ, जो हमारी जनसंख्या का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह महिलाओं का ऐसा हिस्सा है जो, अपना अस्तित्व अपनी पहचान न रखते हुए भी, महिलाओं के एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है।
मैं ऐसी कई महिलाओं से मिली हूँ, और बहुत अच्छी तरह से इनकी समस्याओं का जानती भी हूँ। अक़्सर अधेड़ होने तक इस वर्ग की महिलाएँ बहुत क़िस्म की बीमारियों का शिकार हो जाती हैं, जिनकी दवा चलती रहती है। एक बीमारी ठीक होती है तो दूसरी, फिर तीसरी . . . फिर, फिर . . . ये सिलसिला चलता ही रहता है।
इसके पीछे कुछ इतने जटिल कारण होते हैं कि न कारण ख़त्म होते हैं न बीमारी। यह शरीर से ज़्यादा मन की बीमारी होती है। वातावरण और व्यक्तित्व के विकास की अपूर्णता भी अहम भूमिका निभाते हैं। अपनी पहचान अपने अस्तित्व के प्रति आश्वस्ति की कमी (identity crisis) इसका मुख्यतम कारण है।
भारत में आज भी स्त्रियों या पुरुषों का स्वतंत्र और विकसित व्यक्तित्व कम ही होता है। हमारे यहाँ परिवार और अनुशासन अभी भी बहुत है। बच्चों को अपने स्वतंत्र निर्णय लेने नहीं दिए जाते हैं। क्या पढ़ना है, कहाँ पढ़ना है कौन सा करियर चुनना है, इसका निर्णय बचपन में ही नहीं, बच्चों के 12 कक्षा तक पहुँच जाने के बाद भी माँ बाप या घर के कुछ तथाकथित सफल बड़े-बुज़ुर्ग करते हैं। जहाँ लड़के ने नौकरी पकड़ी या किसी प्रोफ़ेशनल कोर्स के फ़ाइनल में पहुँचा कि शादी को लेकर दबाव पड़ने लगते हैं और कमोबेश 50 प्रतिशत* तक लड़के लड़कियों की शादी 20 से तीस साल के भीतर माँ बाप की इच्छानुकूल हो जाती है।
लड़कियों का क़िस्सा कुछ अलग है। अभी भी 65% जनसंख्या गाँव में रहती है, जहाँ लड़की की पढ़ाई कोई ज़रूरी चीज़ नहीं है। शादी होने तक कुछ-कुछ पढ़ती रहती हैं कोई प्राईमरी, या आठवीं तक, कुछ हाई स्कूल तक, जिनकी शादी में देर हुई तो 12वीं या ग्रेजुएट तक। इस पढ़ाई का योग्यता, ज्ञान या व्यक्तित्व विकास आदि से कोई लेना-देना नहीं होता है।
ऐसी लड़कियाँ ब्याह दी जाती हैं, मेल-बेमेल रिश्तों में, और यहीं से कहानी शुरू होती है, मेरी नायिका की, जो डॉक्टर के क्लिनिक में खड़ी है, धीरे-धीरे सहारा ले कर अपने भारी और बीमार शरीर को उन दो सीढ़ियों तक पहुँचा रही है, जिसके ऊपर डॉक्टर का चेंबर है।
आम मरीज़ जहाँ 10-15 मिनट में बाहर आ जाता है वहीं यह मरीज़ा आधे घण्टे तक अन्दर ही रहती है। वहाँ क्या बात हुई, उसका तो पता नहीं, पर इस वर्ग की महिलाओं की आपबीती कुछ ऐसी होती है कि . . . “भूख नहीं लगती, अगर दो-चार गस्से गले से उतरे, तो पचते नहीं, डकारें आती हैं, गला जलता। ये अँग्रेज़ी दवा गर्मी कर देती हैं, पेट जरे लगता है, निदिंयो नहीं आती। सीना जैसे भारी-भारी हो जात है। का बतायी बस कौनी तरहा नहा-धो के कालीमायी के थान पर हाथ जोड़ के आत-आत थकान के मारे चला नहीं जात। जोड़-जोड़ दुःखत रहत है। अब खाना न खाओ तो खून कहाँ से बने, बस 'कमजोड़ी' पीछा नाही छोड़त है।” यानी ऐसे रोग जो एक दूसरे से ऐसे घुले-मिले होते हैं कि न अलग पहचाने जाते हैं, न अल्ट्रासाउंड, एक्स-रे, मैग्नेटिक इमेजिंग से, कोई इन्हें पकड़ पाता है। पैथोलॉजी लैब अपना सिर थाम लेती है और डॉक्टर अपने सभी नुस्ख़े आज़मा लेते हैं। वैसे डॉक्टरों के लिए ऐसे मरीज़ सौभाग्य की तरह होते हैं, क्योंकि जान को ख़तरा होता नहीं, ठीक होते नहीं, यानी बिल्कुल 'रिकरिंग डिपॉज़िट' की तरह फ़ायदेमंद होते हैं।
दवा तो होती रहती है, पर वो ठीक करने की जगह तमाम दिक़्क़तें पैदा करती रहती है। यानी ये बीमारियाँ ख़ासी असाध्य होती हैं, और इनका इलाज हक़ीम लुकमान के पास भी नहीं होता . . . यह आजीवन चलती रहती हैं। घर की दरो-दीवारों की तरह पूरे परिवार को अपनी छाया से ढँके रहती हैं।
अपवाद रूप घर में कोई शादी-ब्याह हो तो, कुछ दिन सब ठीक चलने लगता है, उस दौरान बाज़ार, दर्जी और सुनार की दुकान के चक्कर भी लग जाते हैं। पकवान, मिष्ठान्न भी आराम से पच जाते हैं। लेकिन आयोजन की गहमा-गहमी ख़तम होते ही, हमारी नायिका पुनः बीमारी के कंधे से लग जाती है। ज़िन्दगी फिर उसी अँधेरे में खो जाती है।
उन्नीसवीं शताब्दी में एक बीमारी थी जिसे हिस्टीरिया कहा जाता था, यह एक अपमानित (pejorative) करने वाला शब्द था जो महिलाओं की मानसिक अस्वस्थता को बताता था, जिसे यौन कारणों से जोड़ा जाता था, परन्तु बाद में परिभाषा बदल गयी। यह सच है कि युगों से महिलाएँ बहुत क़िस्म की प्रताड़ना, अवहेलना, उपेक्षा और हिंसा की शिकार रही हैं, फलतः कुछ मानसिक और शारीरिक रोग महिलाओं को ही होते हैं। पुरुष वर्चस्व और पितृ-प्रधान समाज में स्त्री दूसरे दर्जे की पीड़ित नागरिक ही रही है। कारण बहुत से हैं। सबसे पहला कारण शारीरिक बनावट है, स्त्री अपेक्षाकृत दुर्बल है और वह प्रजनन के लिए बनायी गयी है, अतः बलात्कार करने में अक्षम है। आपको मेरी बात अतिशयोक्ति लग सकती है, परन्तु आधारभूत कारण यही है। पहले गर्भ निरोध के साधन नहीं थे, न गर्भ समापन के, तो ऐच्छिक अनैच्छिक किसी भी तरह से गर्भवती होने पर स्त्रियाँ वर्षो तक अक्षम हो जाती थीं।
आगे भी जब बर्बर समाज थोड़ा सामाजिक हुआ तो भी स्त्री के व्यक्तित्व, अधिकारों आदि का विचार न करके उसे सिर्फ़ सन्तान पैदा करने का साधन ही माना गया। मेरी नायिका भी इसी शाश्वत उत्पीड़न का नमूना है। समाज के इस हिस्से की विडम्बना यही है कि अविकसित व्यक्तित्व की लड़कियों को परिवार के सदस्य अपनी मर्ज़ी के लड़के से कम उम्र में ब्याह देते हैं, लड़के की स्थिति भी इसी तरह की होती है। अधिकांश लड़के-लड़कियाँ बिना विरोध या विद्रोह शादी कर लेते हैं, इसे निभाना भी मजबूरी होती है। आरम्भ में शारीरिक आवश्यकता पति-पत्नी को कुछ समय जोड़े रहते हैं। सम्बन्धों का परिणाम बच्चे होते हैं, बच्चे होने के बाद लड़कियाँ, माँ की ज़िम्मेदारी निभाने लगती हैं, अपने रूप या शरीर के प्रति लापरवाह हो जाती हैं। बच्चों की ज़िम्मेदारी में पिता शायद ही कोई सहयोग करता है, पैसों की व्यवस्था के अतिरिक्त। फलतः पति-पत्नी के रिश्तों में कोई नया आयाम पनपता ही नहीं। मानसिक धरातल पर यह जुड़ नहीं पाते। एक दूसरे के साथ संवाद के विषय ही नहीं होते। आपसी समझ (mutual understanding) बिल्कुल नदारद होती है। कई बार यह भी देखा जाता है कि पत्नी के प्रसूति काल में ही पति विवाहेतर सम्बन्ध बना लेते हैं। जिन रिश्तों में ऐसा नहीं होता वहाँ भी यौनाकर्षण कम हो जाता है। पहले तो स्त्री मातृत्व की ज़िम्मेदारियाँ पूरी करती है, पर एक समय आता है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और माँ से दूर, अपनी दुनिया बना लेते हैं। पुरुष का अपना काम चलता रहता है, बच्चों के बड़े हो जाने से उसको सामन्यतः कोई फर्क़ नहीं पड़ता। ऐसे में महिलाएँ अपने को नितान्त अकेला पाती हैं, रूप और आकर्षण अधिकांश महिलाएँ खो देती हैं, उम्र के साथ यौन सम्बन्ध भी समाप्तप्राय हो जाते हैं। जैसा मैंने पहले भी कहा मानसिक धरातल पर कोई जुड़ाव नहीं होता है। घर के अन्य सदस्यों को भी महिला से कोई विशेष सरोकार नहीं रह जाता, यदि उसमें कुछ विशेष गुण या बुद्धि नहीं होती है। घर की चाहरदीवारी में रहने के कारण उसकी मित्रता का कोई दायरा भी नहीं होता है। ऐसे में उसे बेहद ख़ालीपन और उपेक्षित सा अनुभव होता है। वह अपनी पहचान खोजती है और पाती है कि उसका कोई वजूद ही नहीं है। वह इन्सान है पर उसका कोई चेहरा नहीं है . . .। जिस घर, परिवार और बच्चों को अपना संसार माना, उसे लगता है कि वहीं वह अजनबी हो गई है। अज्ञात सा डिप्रेशन शुरू होता है, जिसका परिणाम अधिक भूख लगना होता है। ज़्यादा खाने और अवसाद से, अक़्सर वज़न बढ़ता है। स्त्रियाँ अपना रहा-सहा आकर्षण और स्वास्थ्य खो देती हैं। हमारा अवचेतन और अर्ध चेतन मन ऐसे में अपने कारनामे दिखाता है। वह व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ करने लगता है। बीमारी में स्त्रियों को थोड़ा विशेष ध्यान मिलता है और शुरू होता है बीमारी का न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र। डॉक्टर के पास या अस्पताल जाना बाहर निकलने के मौक़े की तरह होता है। जिससे थोड़ा बदलाव और साँस लेने का मौक़ा मिलाता है . . . यही दुष्चक्र आजीवन चलता है।
ऐसी स्त्रियों को ही सशक्तिकरण की सबसे अधिक आवश्यकता है। हाशिए पर जी रही, ऐसी महिलायें यदि आपके सम्पर्क में आयें तो ध्यान दें, अगर हो सके तो सहायता भी अवश्य करें। यदि आप पुत्रियों के पिता, भाई या रिश्तेदार हैं तो इनपर ध्यान दें, ऐसी विपत्तिग्रस्त महिला वर्ग को बढ़ने से रोकें। यदि आप स्वयं स्त्री हैं और आपको लगता है, ऐसी कोई स्त्री आपके भीतर पनप रही है, तो सचेत हो जाइए। अपना एक मित्र समूह बनाइये, कुछ शौक़ (hobbies) पालिये, घूमइये-फिरिये, ख़ुद से प्यार कीजिये, ख़ुद को महत्त्व दीजिये, अपनी पहचान अपना चेहरा बनाइये।
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टिप्पणियाँ
sanjana 2022/01/28 09:26 AM
beautifully and very keen composition
दिनेश द्विवेदी 2022/01/25 02:31 PM
मध्यमवर्गीय परिवार की प्रौढ़ावस्था की महिलाओं की वास्तविकता
Vandana pandey 2022/01/25 09:57 AM
Samaj ka darpan hai ye rachna. Sahaj abhivyakti ! Jan jagriti !
Vandana pandey 2022/01/25 09:54 AM
समाज का दर्पण है ये रचना ! गम्भीर चिंतन ! सहज अभिव्यक्ति!!
निखिल कुमार दुबे 2022/01/25 08:43 AM
सटीक मनोविज्ञान। सूक्ष्म विश्लेषण। लेख को कहानी की तरह पेश करने की अलबेली,अनोखी शैली।
अच्युतानन्द धर 2022/01/24 09:57 PM
गांव और शहर के बीच के संस्कारों में झूलती हुई मध्यमवर्गीय नारी का चरित्र चित्रण करने का अत्यन्त उत्तम प्रयास किया गया है। शब्दों को बहुत ही अच्छी विधि से पिरोया गया है पढ़कर प्रसन्नता हुई। लेख में परिपक्वता है।
Neelam Mishra 2022/01/24 05:54 PM
सूक्ष्म निरीक्षण सटीक विवरण।साथ ही समाधान भी।
Sarojini Pandey 2022/01/24 05:26 PM
यह आलेख भारत की मध्यमवर्गीय परिवार की प्रौढ़ावस्था की महिलाओं के एक बड़े वर्ग को रेखांकित करता है। अति वास्तविक!
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पाण्डेय सरिता 2022/02/01 11:08 PM
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