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द्वंद्व

मन और मस्तिष्क का द्वंद्व पुराना है
मन है फ़क़ीर तो मस्तिष्क पैसे का दीवाना है 
मन तो बच्चा है जो हिसाब नहीं जानता है 
मस्तिष्क साहूकार सा, हर चीज़ तौलता, परखता, जाँचता है 
मन को काम नहीं, सपनों की दुकान चाहिये 
मस्तिष्क को काम, दाम और सम्मान चाहिए 
मन को बन्धन नहीं, स्वच्छंद उड़ान चाहिए
मस्तिष्क को परिवार, मित्र और प्रेम बन्धन चाहिये
मन तो आवारा, बदनाम और फक्कड़ है
मस्तिष्क में हमेशा निन्यानवे का चक्कर है 
मन बे-परवाह सा किसी ओर मुड़ जाता है 
मस्तिष्क क़दम रखने से पहले, चार बार जाँचता है 
मस्तिष्क अरमानी और राल्फ लॉरेन चाहता है
मन तो चीथड़ों में भी ख़ुद को कुबेर सा मानता है
मन-मस्तिष्क में छत्तीस का सम्बन्ध है
दोनों के दिल में एक-दूजे का आतंक है
इन्सान आजीवन इसी द्वंद्व में उलझता है
कभी मन की तो कभी मस्तिष्क की सुनता है 
मन की सुनो तो समाज रूठ जाता है, 
मस्तिष्क की बातों से जीवन का मज़ा सूख जाता है
ज़िन्दगी इसी दुधारी तलवार पर चलती है 
कभी मन को घाव, कभी मस्तिष्क पर चोट लगती है, 
इसी कशमकश में उमर गुज़र जाती है . . . 
सचमुच ये ज़िन्दगी बहुत ज़्यादा तड़पाती है 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2021/12/22 08:54 PM

बहुत सुंदर बहुत बढ़िया

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