अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

माँ के घर की घंटी

 

तीस बरस पहले, आँगन में, 
बच्चों की, किलकारी थी। 
छट्ठी, बरही, सालगिरह औ, 
मुण्डन की तैय्यारी थी। 
सास-ससुर, नन्दों-देवर की, 
आवजाही, रहती थी। 
धूम मची रहती थी, घर में, 
पिक्चर, पिकनिक होती थी। 
रूठ-मनव्वल, डाँट-डपट भी, 
इस जीवन का हिस्सा थी। 
दावा, डॉक्टर, ट्यूशन, कोचिंग, 
सबकी झंझट रहती थी। 
चाहत थी तब, सब पढ़ जाएँ, 
ज़िम्मेदारी पूरी हो, 
फ़ुर्सत पाऊँ, थोड़ा सो लूँ, 
कोई ना मजबूरी हो। 
 
बच्चे दूर गए, जब पढ़ने, 
घर की याद, सताती थी। 
फोन की घंटी बजती थी, तब, 
घंटों . . . बातें होती थीं। 
छुट्टी में घर आते थे, सब, 
घर की रौनक़, बढ़ती थी, 
गेट की घंटी बजती थी, और
मोबाइल भी, बजता था!!। 
 
बच्चे बड़े हुए पढ़-लिख के, 
आज . . . ‘बड़े अधिकारी’ . . . हैं, 
दूर . . . ले गई रोज़ी-रोटी, 
वह सब अब, ‘घर-बारी’ हैं। 
सबकी अपनी दुनियाँ है, 
कांधों पे. . . ज़िम्मेदारी है! 
फ़ुर्सत नहीं फोन करने की, 
‘घर आना’ तो भारी है . . . 
 
कुशल-क्षेम चाही-माँगी थी, 
ख़ूब कमायें चाहत थी, 
देश-विदेश घूम आयें सब, 
उन्नति की अभिलाष थी। 
फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है अब तो, 
साँझ-सुबह अब मेरी है। 
जैसे चाहूँ, लेटूँ-सोऊँ, 
मुझे न कुछ मजबूरी है। 
चाह था, जो पाया है! फिर . . . 
मन क्यों आज हुटकता है? 
“गेट की घण्टी कम बजती है, 
फोन!!! बहुत कम बजता है . . . ”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

डॉ पदमावती 2023/05/14 09:59 AM

पक्षी भी तो पंख आने पर उड़ जातें हैं । हर बात को जितनी जल्दी स्वीकार कर लें उतना अच्छा । मेरी मौसी जी ( जो अब नहीं है) हमेशा एक बात कहतीं थी- पानी हमेशा ढलान की ओर भागता है । बच्चे जब स्वयं माँ बाप बन जातें हैं तो अपनी संतान की चिंता में व्यस्त हो जाते हैं । स्वाभाविक है और नैसर्गिक भी । बहुत बधाई और शुभकामनाएँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

किशोर साहित्य कविता

कविता-ताँका

सिनेमा चर्चा

सामाजिक आलेख

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं