माँ के घर की घंटी
काव्य साहित्य | कविता शैली15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
तीस बरस पहले, आँगन में,
बच्चों की, किलकारी थी।
छट्ठी, बरही, सालगिरह औ,
मुण्डन की तैय्यारी थी।
सास-ससुर, नन्दों-देवर की,
आवजाही, रहती थी।
धूम मची रहती थी, घर में,
पिक्चर, पिकनिक होती थी।
रूठ-मनव्वल, डाँट-डपट भी,
इस जीवन का हिस्सा थी।
दावा, डॉक्टर, ट्यूशन, कोचिंग,
सबकी झंझट रहती थी।
चाहत थी तब, सब पढ़ जाएँ,
ज़िम्मेदारी पूरी हो,
फ़ुर्सत पाऊँ, थोड़ा सो लूँ,
कोई ना मजबूरी हो।
बच्चे दूर गए, जब पढ़ने,
घर की याद, सताती थी।
फोन की घंटी बजती थी, तब,
घंटों . . . बातें होती थीं।
छुट्टी में घर आते थे, सब,
घर की रौनक़, बढ़ती थी,
गेट की घंटी बजती थी, और
मोबाइल भी, बजता था!!।
बच्चे बड़े हुए पढ़-लिख के,
आज . . . ‘बड़े अधिकारी’ . . . हैं,
दूर . . . ले गई रोज़ी-रोटी,
वह सब अब, ‘घर-बारी’ हैं।
सबकी अपनी दुनियाँ है,
कांधों पे. . . ज़िम्मेदारी है!
फ़ुर्सत नहीं फोन करने की,
‘घर आना’ तो भारी है . . .
कुशल-क्षेम चाही-माँगी थी,
ख़ूब कमायें चाहत थी,
देश-विदेश घूम आयें सब,
उन्नति की अभिलाष थी।
फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है अब तो,
साँझ-सुबह अब मेरी है।
जैसे चाहूँ, लेटूँ-सोऊँ,
मुझे न कुछ मजबूरी है।
चाह था, जो पाया है! फिर . . .
मन क्यों आज हुटकता है?
“गेट की घण्टी कम बजती है,
फोन!!! बहुत कम बजता है . . . ”
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डॉ पदमावती 2023/05/14 09:59 AM
पक्षी भी तो पंख आने पर उड़ जातें हैं । हर बात को जितनी जल्दी स्वीकार कर लें उतना अच्छा । मेरी मौसी जी ( जो अब नहीं है) हमेशा एक बात कहतीं थी- पानी हमेशा ढलान की ओर भागता है । बच्चे जब स्वयं माँ बाप बन जातें हैं तो अपनी संतान की चिंता में व्यस्त हो जाते हैं । स्वाभाविक है और नैसर्गिक भी । बहुत बधाई और शुभकामनाएँ