फ़ादर्स डे और 'इन्टरनेटी' देसी पिता
काव्य साहित्य | कविता शैली15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
जिसने तुमको जन्म दिया है, उसको क्या दे पाओगे!
फ़ादर्स डे पर, अपने पप्पा को कितना बहलाओगे?
गूगल या पेपर से पढ़ कर, याद तुम्हें भी आती है,
बूढ़े पापा के मन की, कमज़ोरी खोजी जाती हैं।
भावपूर्ण संदेश, चित्र, बहुतेरे 'नेट' पर मिलते हैं,
इनसे कुछ काट-छाँट कर, बच्चे मैसेज लिखते हैं।
इन्हें भेज कर इस दिन बच्चे, पितृ-भक्त बन जाते हैं,
वीडियो-कॉल, 'चैट' करके, कर्तव्यों से तर जाते हैं।
धूल खा रहा फोन अचानक, चौंकाता-सा बजता है,
उसमें से बच्चों का आदर-स्नेह, फूल-सा झरता है।
हतप्रभ, मूक सभी फ़ादर, यह खेल देखते रहते हैं,
पितृ-भक्ति का कितना अच्छा, अभिनय बच्चे करते हैं।
पितृ प्रेम की प्यारी बातें, निरी व्यंग्य सी लगती हैं,
"शॉल लपेटी जूती" सी, आकर कानों में चुभती हैं।
कुछ बच्चे जो 'रिच' हैं, उपहारों से प्यार जताते हैं,
देशी और विदेशी बाज़ारों पर, नज़र घुमाते हैं।
चीनी-रहित केक, गुलदस्ते, गिफ़्ट-पैक करवाते हैं,
इन्हें भेज कर वृद्ध पिता को, सस्ते में निबटाते हैं।
'कुरियर' वाले की घंटी से, 'सूना घर' हिल जाता है,
क्षुब्ध-दुःखी और म्लान पिता को, यह उपहार चिढ़ता है।
पूरे साल कहाँ थे तुम, क्यों आज प्यार यूँ आया है?
क्यों, कैसे, किस मतलब से, हमको उपहार दिलाया है?
मान नहीं, अपमान-सरीखी, 'गिफ़्ट' तुम्हारी लगती है,
सच मानो, 'कुत्ते को फेंकी हड्डी' जैसी लगती है।
स्नेह, प्यार, सम्मान नहीं, सामान हमें भिजवाते हो!
पाल-पोसकर बड़ा किया, क्या इसका 'लोन' चुकाते हो?
अपने पैसे रक्खो तुम,अपनी दुनियाँ में मस्त रहो,
देना है कुछ तो, वह दो कि जिसमें तुमको कष्ट न हो।
एक माह में सिर्फ़ हमें तुम, एक संदेसा भिजवा दो,
सकुशल, हँसी-ख़ुशी से हो तुम, बस इतना ही बतला दो।
इतना अगर कर सकोगे तो, हमको बड़ी ख़ुशी होगी,
'मौन पड़े' इस घर में शायद, जीवन की आहट होगी . . .
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टिप्पणियाँ
shaily 2021/06/15 05:37 PM
माननीय सम्पादक जी को हार्दिक धन्यावाद,मेरी कविता को आपने पत्रिका में स्थान दिया.
कृपया टिप्पणी दें
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Sarojini Pandey 2021/06/18 06:26 PM
बाजार द्वारा प्रेरित येत्यौहार माता और पिता के प्रति मखौल उड़ाते से लगते हैं बहुत सही लिखा है आपने कड़वी सच्चाई को स्पष्ट कहने का साहस सराहनीय है