देसी सुगंध
काव्य साहित्य | कविता शैली15 Jan 2022 (अंक: 197, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
खेतों में कटनी की ऋतु है नियरायी,
धान भरी बालियाँ सुवर्ण में नहाईं
गन्ने के खेत भी घट से गए हैं,
कट-कट के मिल में पिरने गए हैं,
तेल की मटकी सी फलियाँ लगी हैं,
तीसी भी खिल के सिमटने लगी है,
सरसों है पीली पर धुँधली हुई है,
फूल झरे, फलियाँ निकलने लगी हैं,
तिलहन के पौधों की शोभा निराली है,
दानों के बोझ तले लच-लच गयी हैं,
रामदाना लाल-लाल फूला हुआ है,
ख़ुद अपने रंग पर बौराया हुआ है,
पपिहा नहीं है, कोयल नहीं है,
नन्हीं चिरइया चहकती उड़ी है
खेत में शिशिर अब सिमटने लगा है,
संक्रमण में सूरज लुढ़कने लगा है,
सर्दी की धमकी कुछ कम हो गयी है,
सूरज की गर्मी कुछ बढ़ सी रही है
धुन्ध और कोहरे का घूँघट हटा कर,
सुषमा प्रकृति की बिहँसने लगी है,
डोर के सिरे पर इठला रही हैं,
फर-फर पतंगे फहरने लगी हैं,
पोंगल, विलाक्कू, घुधुती, उगादि, खिचड़ी,
सक्रांति, उत्तरायण या लोहड़ी,
देश के सारे प्रदेश में मने हैं,
त्यौहार भारत की रग-रग बसे हैं,
चिक्की, गजक, तिल औ लइया के लड्डू,
ताज़े गुड़ के संग, महकने लगे हैं।
माघ में नहान की महिमा है न्यारी,
नदियों के घाट अब सजने लगे हैं।
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Sarojini Pandey 2022/01/14 10:44 AM
उत्तर भारत के खेतों का अत्यंत मनोरम चित्रण