होली क्या बोली
काव्य साहित्य | कविता शैली1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
क्या होली सिर्फ़ चेहरे पर रंग लगाती है?
शरीर और चूनर को रंगों से भिगाती है?
गुझिया, पुए और मिठाइयाँ खिलाती है?
होली जो चेहरे पर रंग लगाती है . . .
आपकी रोज़ की पहचान छुपाती है,
ओढ़ी हुई अस्मिता,
मान और अभिमान से मुक्ति दिलाती है
थोड़ी देर के लिए आपको,
ख़ालिस, खरा इन्सान बनाती है,
बंधनों से दूर, सहज, सुखद क्षितिज में ले जाती है
आपको को आप से अलग कर
मुक्ति का एहसास कराती है,
हौले से आपको उड़ा ले जाती है
मौज और मस्ती से परिचय कराती है
भंग और रंग से तरंगित करती है
दुःख और विषाद को भूलने में मदद करती है
बंधनों को खोलती है, हाथों को रंग डुबोती है
कहती है रंग लो, सभी सपनों को
आज को, कल को आगत भविष्य को
रंगीन कर लो आत्मा और विश्वास को
भावनाओं को गुलाल सा उड़ने दो
ख़ुशियों के राग को मस्ती में गाओ
फाग के ख़ुमार में खो जाओ
फेंक दो पानी में विषाद और चिन्ता को
रंगों के साथ घुल जाने दो
गले लगा लो सब दोस्त और दुश्मन को
गिले-शिकवे मिट जाने दो
होली की मस्ती को सिर पर चढ़ जाने दो
बे-रंग जीवन को रंगों से रंग जाने दो . . .
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अप्रतिहत
- अमृत जयन्ती तक हिन्दी
- आराधना
- उचित क्या है?
- एकता का बंधन
- क्वार का मौसम सुहाना
- खोज
- ग्रहण में 'शरतचंद्र'
- चाँद पर तीन कवितायें
- जलता यूक्रेन-चहकते चैनल
- जादू की परी?
- जाने क्यूँ?
- डिजिटल परिवार
- त्रिशंकु सी
- दिवाली का आशय
- देसी सुगंध
- द्वंद्व
- पिता कैसे-कैसे
- प्यौर (Pure) हिंदी
- प्राचीन प्रतीक्षा
- फ़ादर्स डे और 'इन्टरनेटी' देसी पिता
- फागुन बीता जाय
- फागुनी बयार: दो रंग
- माँ के घर की घंटी
- ये बारिश! वो बारिश?
- विषाक्त दाम्पत्य
- शब्दार्थ
- साल, नया क्या?
- सूरज के रंग-ढंग
- सौतेली हिंदी?
- हिन्दी दिवस का सार
- होली क्या बोली
हास्य-व्यंग्य कविता
किशोर साहित्य कविता
कविता-ताँका
सिनेमा चर्चा
सामाजिक आलेख
ललित निबन्ध
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं