विषाक्त दाम्पत्य
काव्य साहित्य | कविता शैली1 Jun 2023 (अंक: 230, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
तीस साल बीत गये, हमें साथ रहते,
देना पड़ता है रोज़ मुझे अपना परिचय
मेरी पहचान उन आँखों में नहीं दिखती
किसी काम में चूक हो तो मिलती है झिड़की
बीमार होने पर इलाज मिल जाता है
सामाजिक दृष्टि से सुखी कहा जाता है
बच्चे भी पिता को ए.टी.एम. जानते हैं,
वो भी कहाँ अपने बच्चों को पहचानते हैं?
घर है, पैसा है, नौकर है कार हैं
पारिभाषिक शब्दों में हम सुखी परिवार हैं
दुनिया की नज़र से कोई कमी नहीं दिखती
लेकिन ये ज़िन्दगी, कभी ज़िन्दा नहीं लगती
ना हम हैं बेवफ़ा ना वो गुनहगार हैं
लेकिन न जाने क्यों बीच में दीवार है
प्यार किसे कहते हैं, जानती नहीं हूँ
दृष्टा-सी देखती बस, दूर ही खड़ी हूँ
मेरी कहानी नहीं क़िस्सा ये आम है
शायद हर तीसरा घर इसका शिकार है
पत्नी झल्लाती है और पति परेशान है
दुःखमय दाम्पत्य के सब जीवित प्रमाण हैं . . .
बाला है, मधुशाला है, देसी का ठेका है
ग़म ग़लत करने का ये बरसों से धोखा है
मर्द घर लौटने में अक़्सर हिचकता है
बीवी को गले पड़ी ढोलकी बताता है
इंतज़ार कर-कर के बीवी हैरान है
पति और बच्चे ही तो उसकी पहचान हैं
रास्ते नहीं हैं कोई घर से बँधी है
घुटती है, रोती है वो मर-मर जियी है
फिर भी बदनाम है वो लड़ती है पति से
चुटकुले बनाते हैं सब पुरुष जम के
बीवी को लेकर होती हैं खुलेआम मसखरी
सुरेंद्र शर्मा हों या हों काका हाथरसी . . .
दर्द बीवी का कितने पति जानते हैं?
क्या सिर्फ़ साधन जैसा उसे नहीं मानते हैं?
प्यार मन तक नहीं शरीर तक होता है
जिसका सुख केवल मर्द ही भोगता है
बाई प्रोडक्ट से बच्चे हो जाते हैं,
बीवी के सिर बाँध के पति मुक्त हो जाते हैं
बच्चे की सफलता पर ख़ुद सीना ठोंकते हैं,
बिगड़ जाने का ठीकरा माँ के सिर फोड़ते हैं
ताउम्र अन्याय से समझौता करती हैं
ऐसे ही औरतें चिड़चिड़ी नहीं होती हैं . . .
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पाण्डेय सरिता 2023/06/02 11:10 PM
गृहस्थी की कड़वी सच्चाई बयान करती आपकी कविता दीदी