सूरज के रंग-ढंग
काव्य साहित्य | कविता शैली15 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
ये ठिठुरता सा सूरज कितना डरा सा दुबका था
धुन्ध और कोहरे की चादर में . . .
बिल्कुल उदासीन था,
ठण्ड से थरथराती धरती से,
जानता ही नहीं था, ग़रीबों की ग़ुरबत को,
जो हसरतों से उसकी बाट जोहते थे,
देखता भी नहीं था उस ओर,
जहाँ पुरानी धोती के आँचल में
लिपटे बच्चे को सीने से लगाए,
उस ग़रीब माँ ने बेसब्री से रात काटी थी,
सिर्फ़ गर्म सूरज को सदाएँ देते हुए॥
भूल गया था, ओस से भीगी घास और पौधों को
जो सिर्फ़ उसके इंतज़ार में बैठे थे . . .
नज़रंदाज कर दिया था उन किसानों को भी,
जो पाले से झुलसे खेतों को देख कर रोते थे,
निष्ठुर सा सिर्फ़ ख़ुद के बचाव में,
घने बादलों के दुर्ग में बैठा था,
ख़ुद की फ़िक्र में धरती को नहीं पूछता था॥
सूरज की इस कायरता से क्षुब्ध धरती,
दक्षिण की ओर झुक गई,
सूरज को ये बात अखर गयी . . .
निकल आया अपने तेज के साथ
अब पेड़ों के छोर पर नहीं,
ज़मीन पर उतर आया है,
ओस और धुन्ध को अपने ताप से पिघलाया है,
अभी बसंत है, उससे डरा हुआ है,
तभी ये सूरज थोड़ा कम तप रहा है . . .
धीरे-धीरे ये अपनी तपन बढ़ायेगा,
आज सड़कों पर है,
कल आँगन में घुस जाएगा,
धरती को धूप से झुलसायेगा,
चैत, बैसाख, जेठ के साथ,
अपने ताप को बढ़ाता ही जाएगा,
तब सभी इससे डरेंगे,
दिन के वक़्त घर से नहीं निकलेंगे,
छाते, अँगोछे, और दुपट्टे से
सिर को ढँक कर लोग निकलेंगे,
फिर दीवारों और छत के अन्दर भी
इसकी गर्मी को सही नहीं जाएगी,
धूप से गर्म हवाएँ
आपके अन्दर का भी पानी सोख जायेंगी,
लू के थपेड़ों से कितने जीव और मनुष्य मरेंगे,
तब ये सूर्य देवता तनिक सी ओट भी नहीं लेंगे,
समय का खेल है साहब! सभी को बताता है,
आज जो कमज़ोर है, वह कल गर्दन दबाता है,
समय बलवान है, ये सभी को नचाता है,
आज राजा तो कल रंक बनाता है . . .
आज चढ़ाव पर हैं, तो गुमान में न आइये,
कल किसने देखा है? थोड़ा नर्म हो जाइए!!!
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