उचित क्या है?
काव्य साहित्य | कविता शैली15 Jan 2022 (अंक: 197, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
उत्तर भारत में जनवरी का पहला हफ़्ता,
ठंड के बोझ तले दबा,
तीन दिनों से निरंतर मेह बरसाता ठिठुर रहा है,
शहर शान्त, सड़कें वीरान हैं,
बस कोई इक्का-दुक्का
ज़रूरत का मारा, रास्तों से गुज़र रहा है,
तबीयत नासाज़ है, हीटर लगा,
रज़ाई में पड़ी थी,
खाना पकाने और
हाथ गीले करने की इच्छा नहीं थी,
सोचा ऑनलाइन खाना मँगाती हूँ,
बिना झंझट के आराम करती हूँ,
फिर मन में ये बात कौंधी,
कोई ग़रीब लड़का,
बाइक पर भीगता, ठिठुरता लेट-नाइट डिलिवरी,
घर तक पहुँचाएगा,
इस बारिश और सर्दी में बेचारा भीग जाएगा,
बेकार में किसी ग़रीब को क्यों तंग करूँ,
कुछ फल बिस्कुट खा कर क़िस्सा ख़त्म करूँ,
अचानक दूसरा पक्ष दिखा,
अगर सभी ने ऐसा सोच कर कोई ऑर्डर नहीं किया?
अगर उसे आज कोई काम ही नहीं मिला?
प्रतिदिन डिलिवरी से पैसे कमाने वाले को,
आज पैसा कैसे मिलेगा?
उस बेचारे के घर में चूल्हा कैसे जलेगा?
ऐसा ही कुछ हाल “बालश्रम“ का है,
उन्हें काम देना अपराध और शोषण है,
बिना काम के तो कोई पैसे नहीं देता,
भीख माँगना किसी को शोभा नहीं देता,
बच्चा इज़्ज़त से मेहनत कर चार पैसे कमाता है,
ख़ुद खाता है, कुछ पैसे घर भी ले जाता है,
सिक्के के दोनों पहलू देख कर मन परेशान है
फल चाकू पर या चाकू फल पर गिरे,
फल का ही नुक़सान है,
उलझ कर रह गई हूँ, सिरा नहीं सूझता है . . .
मुझे भी बताएँ, अगर आपको हल मिलता है!
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